Posted By Geetashree On 6:21 AM 0 comments

 रचना-सूत्र

-गीताश्री

एक कृति से दूसरी कृति जन्म लेती है. वह महान कृति होती है जिससे दूसरी कृति निकलती है. वह किताब महान जो दूसरी रचना का सूत्र देती है.

कसौटी कई तरह की होती है कृति को क़सने की. आज सबके पास एक कसौटी है.

जरुरी नहीं कि वह कसौटी सही हो. असली कसौटी की पहचान भी मुश्किल है. निगाहें चाहिए. सच आँख भर नहीं होता. आँख के रास्ते विवेक की आंच में सच को सींझना होता है. जैसे कोई बेटी , अपनी मां की नक़ल नहीं होती, उसकी अपनी मौलिक उपस्थिति होती है, अपने गुण दोष के साथ.

वैसे ही कोई कृति से जन्म लेने वाली दूसरी कृति होती है. अपनी स्वतंत्र चेतना और इयत्ता के साथ.

कहते हैं-

यह पृथ्वी अन्य ग्रहों की तरह एक ग्रह है. सूरज से टूट कर बनी हुई ठंडी पिंड.

इसके पास सूरज से ज़्यादा संसाधन हैं. इससे न सूरज का महत्व कम होता है न पृथ्वी उसकी कॉपी रह जाती है.

हमें कृतियों को उनकी स्वतंत्र चेतना के साथ स्वीकारने की तमीज़ हासिल करनी चाहिए.

 

 

 

Posted By Geetashree On 4:01 AM 0 comments

 

ब ह स

 

"क्या बाज़ार साहित्य का मूल्य तय कर सकता है? क्या बिक्री के आँकड़े साहित्य की श्रेष्ठता के मूल्यांकन के लिए कसौटी बन सकते हैं?"

 

बाज़ार साहित्य पर हावी है, कंटेंट से लेकर बिक्री तक. बाज़ार मूल्य अलग तरह से तय कर रहा है. एक जमात है जो बाज़ार को दिमाग में रख कर लिख रही है. उसका लक्ष्य किताब बेचना और पाठक बनाना है. उसे साहित्य की शुचिता या आग्रहों से कोई मतलब नहीं. वह पूरी तरह मुक्त है और मुक्ति की घोषणा कर चुकी है कि हमें साहित्य की श्रेणी में नहीं रखना तो मत रखो. हम आपके लिए लिख नहीं रहे. हम पाठकों के लिए लिख रहे. यानी टारगेटेडट ऑडियेंस के लिए लिख रहे. पाठकों की रुचि को ध्यान में रखते हुए लिख रहे. उन्हें ज़माने की नब्ज पता है कि नयी पीढी क्या पढ़ना चाहती है. भाषा से लेकर कंटेंट तक ख़ूब खिलवाड़ हुए हैं. पिछले कुछ सालों में स्वाद बदल गया है. सारे मानदंड टूट गए हैं. सब अपने हिसाब से, सुविधा से नये मूल्य गढ़ रहे हैं. ज़ाहिर है, नये मूल्य गढ़ते समय हम अपने समय का ध्यान रखते हैं. किताब की बिक्री का ध्यान रखते हैं. लेखकों पर दबाव रहता है कि किताब को कौन पढ़ेगा, क्यों पढ़ेगा? कैसा स्वागत होगा? बेस्ट सेलर बनेगी या नहीं.

क्योंकि बेस्ट सेलर होना साहित्य में सेलिब्रिटी होना है.

बेस्ट सेलर की अवधारणा बाज़ार की देन है. किताबें कब नहीं बिकी? पुराने लेखकों की किताबें आज भी ख़ूब बिकती हैं. पुस्तक मेले में जाकर देखे कोई कि बुक स्टॉल पर सबसे ज़्यादा किनकी किताब बिकती है? पुराने लेखक आज भी प्रासंगिक है, कंटेंट के लिहाज़ से भी और बिक्री के आधार पर भी. उनकी माँग कभी कम न हुई. मगर वे किसी प्रोपगेंडा का हिस्सा नहीं हैं. वे नहीं बोलते, उनकी किताबें बोलती हैं. बोलती रहेंगी. उनके मूल्य भी उनके तय किए हुए थे. तब उनके समक्ष बाज़ार नहीं, शुद्ध पाठक और अपना समाज था.

आज बाज़ार है और भिन्न रुचियों और व्यवसाय वाला पाठक है.

अधिक बिक्री कभी साहित्य की कसौटी नहीं हो सकती. बाज़ार तय नहीं कर सकता कि श्रेष्ठ साहित्य क्या है, बस यही काम बाज़ार नहीं कर सकता. बाज़ार तात्कालिक मोल दे सकता है, कालजयी होने का भाव नहीं.

इतना तो सबको पता है साहित्य में वक़्त से बड़ी कसौटी कोई नहीं और पाठक से बढ कर कोई ईश्वर नहीं.

यह ईश्वर नष्ट होने वाली प्रजाति है. इसकी अपनी समझ और विवेक की सीमाएँ हैं. जरुरी नहीं कि लेखक के स्तर के पाठक भी हो. हम उस अदृश्य प्रजाति पर दांव खेलते हैं जिस पर इतना भरोसा नहीं कि वह लेखक से ज़्यादा पढ़ा लिखा होगा. लेखक संवेदना के जिस धरातल पर खड़ा होकर लिख रहा है, पाठक की संवेदना उससे मिलती हो, उसके समानांतर हो. कम न हो.

मौजूदा समय में साहित्य को लेकर फ़ास्ट फ़ूड वाली प्रवृति दिखाई देती है. अख़बार की तरह बाँच कर किसी बेंच पर छोड़ कर चल देने की लापरवाही.

झटपट ...झट और पट !

किताबें झट से आती हैं पट से बिला जाती हैं.

जो दिमाग में अटक जाती है जिसे पीढ़ियाँ दोहराती हैं, सुनाती है वो है - सामाजिक मूल्यों और मानवीयता के पक्ष में खड़ी कृतियाँ. जिसमें प्रवेश करते की पाठक पनाह और विश्राम पा जाए.

जहाँ वह घबरा कर बार -बार घुसना चाहे.

एक उदाहरण देकर समझाना चाहूँगी कि बेस्ट सेलर किताबें किसी मशहूर डिज़ाइनर की उस डिज़ाइन की तरह होती है जिसे प्रेट लाइनबोलते हैं, यानी एक डिज़ाइन की लाखों कॉपी, वह बेस्ट सेलर होती है. कभी डिज़ाइन की वजह से तो कभी नाम की वजह से. श्रेष्ठ साहित्य सव्यसाची के लहंगे की तरह है जिसका एक पीस ही तैयार होता है.

बाज़ार इसे भौंचक्का होकर देखता है, सराहता है, तरसता है, मूल्य नहीं लगा सकता.

बेस्ट सेलर उसी प्रेट लाइन डिज़ाइन की तरह है... बिकाऊ किताबें जो प्रकाशक और लेखक दोनों की जेब भर देती है.

समय के साथ फ़ैशन और जरुरत समाप्त !

बाज़ार बहुत ख़राब चीज़ नहीं मगर उसे किसी पुण्य की तरह चाहना ख़राब है. वो हावी होगा तो आप अपने साथ छल करेंगे. अपनी नहीं सुनते जो वे बाज़ार की आवाज़ें सुनते हैं. सुरीली पार्श्व गायकी के वाबजूद  कोरस के गायकों की पहचान कितनी स्थायी !!

बाज़ार यहाँ विफल है. उसकी अपनी सीमाएँ हैं. हैसियत है. वह निर्जीव चीजों पर प्राइस टैग लगा सकता है, उसे अमर नहीं कर सकता.

बेचना कसौटी नहीं है. कसौटी है समय ! उस पर छोड़ देना चाहिए.

 

 

 

 

 

 

Posted By Geetashree On 8:39 PM 0 comments

 वरिष्ठ लेखिका अनामिका का खत, गीताश्री के नाम

राजनटनी उपन्यास पढ़ने के बाद उपजी प्रतिक्रिया जो खत में ढली....


प्रिय गीता,

 

इतिहास के साथ, वह भी मिथिलांचल ओर तिरहुत - जैसे श्रुतिबहुल क्षेत्रों के साथ महाकाल की लुकाछिपी अपने साहित्य में मंचित करने वाली उषाकिरण खान की परम्परा में आज तुम भी खड़ी हो -अपनी राजनटनीकी मृणाल-सदृश बाँहें गले में लपेटे हुई। यह देखकर मेरी माँ, तुम्हारी जायसी-स्पेशलकी पुरानी प्रोफेसर कितनी खुश है, यह तो यहाँ आकर ही देख सकती हो !

रिक्त स्थानों की पूर्तिवैसे तो स्कूली बच्चों का प्रिय होमवर्क होता है, पर यही होमवर्क जब लेखक करने बैठते हैं ऐतिहासिक उपन्यासों के लेखकतो उनसे एक चूक यह हो जाती है कि वे उस समय की भाषा और तत्कालीन परिवेश ज्यों की त्योंधर दीनी चदरियाभाव से उतार नहीं पाते।

तुमने लोकका बायस्कोप पकड़ा है जो मिथिलांचल में अभी भी बहुत नहीं बदला है, और बोली-बानी,  प्रकृति-पर्यावरण की छाँव में यह पूरा प्रसंग मंचित किया है कि कैसे एक अज्ञातकुलशील स्त्री या (जाति-वर्ण -संप्रदाय आदि के) फ़्रेम से बाहर पड़ने वाली तथाकथित रूप से अवर्णस्त्री भी उतनी ही उच्चाशाय हो सकती है, जितनी सामान्य स्त्री नहीं होती। गीता की नायिका, रवींद्रनाथ ठाकुर के गोराकी तरह देशकी सामान्य चौहद्दी के बाहर की है यानी मिथिला के बाहर की, कहीं और से आकर बसी हुई अदर है वह फिर भी  देशहित के लिए उतनी प्रतिबद्ध है जितनी स्थानीय जनता भी नहीं। इस बहाने तुमने, ‘देशप्रेमकी संकीर्ण परिभाषा को स्पष्ट चुनौती दी है और यह काम आज के संदर्भ में बहुत जरूरी माना जाएगा जब बाहर से आकर बसे हुओंको अपनामानने को जल्दी कोई तैयार ही नहीं होता।

दूसरी बात इसमें यह ध्यान देने लायक है कि  पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआकी श्रेणी में पड़ने वाले, सार  तुम्हारे अपने शब्दों में सारा दिन किताब में मुण्ड घुसाए रखने वालेवाले राजकुमार की तुलना में एक सामान्य लोक कलाकार की चेतना अधिक विकसित हो सकती है! स्वयं औपचारिक शिक्षा से विरत रहकर भी वह अपनी नैसर्गिक प्रज्ञा से यह समझ सकती है कि देश किसी देश प्रदेश की असली थाती उसकी कलाकृतियाँ और पाण्डुलिपियाँ होती हैं, उसके साधना ग्रंथ! और किसी लूट-पाट से अधिक दूरगामी व्याप्ति रख सकती है ज्ञान-थाती की चोरी! बंगाल का राजा अपनी सांस्कृतिक निधि चौगुनी करने की सूक्ष्म लालसा से प्रेरित है जो वह छल-बल से स्वयं हासिल नहीं कर पाता, वैचारिक राग-द्वेष से पीड़ित गद्दारों की मदद से उसका बेटा हासिल करता है, पर शठे शाठ्यं समाचरेतकी नीति आजमाती हुई राजनटनी उसका पासा पलट देती है, अपनी जान हथेली पर लिए हुए साथी नटों की मदद से पाण्डुलिपियों वाले बक्से ही बदल देती हे नाव पर लदवाने के पहले

हालाँकि राजकुमार उसे नए देश की महारानी बनाकर साथ ले जा रहा है! उसका यह निर्णय फॉर्स्टर के निर्णय की याद दिला देता है :

" I have to choose between betrayaing my country and but betraying my friend, I would rather betray my country."  

नटनी का जीवन फॉस्टर्र की उक्ति का सजग प्रतिपक्ष गढ़ता है और उसी शिद्दत से यह अनपढ औरत ग्रंथों का मोल चुकाती है जिस शिद्दत से रोजेविक की कविता में ऋवान्त अपने प्रतिपक्ष का मोल

‘‘और सफेदी का सही बखान है

रंग सुरमई

पक्षी का पत्थर

सूरजमुखी का दिसम्बर...

रोटी का सबसे सटीक बखान

भूख...

उसके भीतर ही है

एक नम छिद्रकोष

एक ऊष्म, भीतरी सतह,

सूरजमुखी रात के...

प्यास की स्रोत-सदृश परिभाषा है

राख, रेगिस्तान...

 

इस क्रम में आगे कहें तो गीताश्री का सही बखान हैं यह उपन्यास, लिट्टी चोखाके बाद की ये रचनाएँ जो आम्रपाली  गाथा से होती हुई अब राजनटनीके मनोलोक तक पहुँची है और गंगा उस पारवाले नैतिक भूगोल के बतरसप्रवण भाषिक अवचेतन तक। उपन्यास अपने निर्बाध, रोचक कथाप्रवाह के कारण भी पठनीय है।

 

तुम्हारी

अनामिका 

 

 

 

Posted By Geetashree On 12:57 AM 2 comments
फिल्म




 हर अमृता को रिस्पेक्ट और हैप्पीनेस चाहिए , थप्पड़ वाला प्यार नहीं

-गीताश्री

ऐसी उम्मीद दिवास्वप्न है।
कहाँ है ? किस व्यवस्था से उसे उम्मीद है? वर्तमान पारिवारिक ढाँचे में तीन हज़ार साल से कोई बदलाव नहीं आया तो अब क्या आएगा? नसों में जो ग़ुलामी उतार दी गई है, उसे कैसे बाहर निकालेंगे? थप्पड़ एक फ़िल्म नहीं, स्त्री के स्वाभिमान का लहूलुहान चेहरा है. सदियों के थप्पड़ों का दाग चाँद पर है और स्त्री का चेहरा वही चांद है. आप चांद के चेहरे पर दाग के अर्थ ढूँढना बंद कर दीजिए. उसका जवाब आपकी ऊंगलियां हैं जो सदियों से किसी स्त्री का गाल ढूँढती चली आई हैं. चांद के चेहरे पर झाइयाँ नहीं है वो दाग. आपके ज़ुल्मों सितम की कहानी है... हिंसा की लिपि पुरुषों से बेहतर कौन लिख और पढ़ सकता है? हिंसा की लिपि कई स्तरों पर लिखी जाती है. मानसिक और शारीरिक दोनों स्तर पर.
स्त्री के गाल और उसकी देह तो पहले से ही उस लिपि के लिए स्लेट का काम करते थे, अब उसकी आत्मा पर थप्पड़ के फफोले उगने लगे हैं.
सवाल एक थप्पड़ का नहीं है बाबा. मत ढूँढिए न ही तर्क दीजिए कि एक ही थप्पड़ तो मारा था. इतना तो चलता है. ये कोई बड़ी बात नहीं है. औरत को सहने की आदत डाल लेनी चाहिए.
याद दिलाऊँ।
तीन हज़ार साल पहले भिक्षुणी सुमंगला ने आज की अमृता की तरह ही थप्पड़ खाकर लिखा था कि अहो , मैं मुक्त हुई. मेरा पति तो मुझे उस छाते से भी तुच्छ समझता था जिसे अपनी जीविका के लिए बनाता था.
अमृता (तापसी पन्नू) का पति उसे क्या समझता रहा? फ़िल्म देखने वाले दर्शकों से क्या छुपा है? उनकी आत्मा जानती है कि लोग अपनी पत्नियों को क्या समझते हैं?
एक गाल जिस पर दुनिया भर का ग़ुस्सा और कुंठा छाप दिया जा सकता है.
एक सामान जिसे जब चाहे अपने घर से निकलने का हुकुम दिया जा सकता है.
एक देह जिसे जब चाहे बिस्तर पर पटका जा सकता है, रौंदा जा सकता है। उसकी मर्जी के विरुद्ध।
एक वर्कर जिसे जब चाहे घरेलू कामों में झोंका जा सकता है। रसोई जिसकी सबसे बड़ी जगह। जहां उसे हर हाल में आग में पकना, सींझना है।
एक कोख, जिसे संतानोत्पति के लिए जब चाहे लोड किया जा सकता है। वंश वृद्धि के नाम पर संतानें पैदा करते रहने का हुक्म दिया जा सकता है।
एक भ्रूण, मांस का लोथड़ा जिसका पता लगते ही कोख में ही कत्ल का जा सकता है।
ये तो कम है। जाने कितनी बातें गिनाई जा सकती हैं। इन सबके वाबजूद थप्पड़ तो इनाम है, रोज की बात है, उसका चाय और नाश्ता है। कहते हैं –ङर तो स्त्री से बनता है। मकान को घर वही बनाती है। कितना कड़वा सच है कि वह घर ही तो उसकी कब्रगाह है। वो घर कहां होता है उसका। संपत्ति में कहां होता है उसका नाम। पति को गुस्सा आए तो बाल पकड़ कर दरवाजे से बाहर धकिया सकता है। उसका सामान बाहर फेंकते हुए चुटकी बजाते हुए कह सकता है....निकलो बाहर, अभी के अभी निकलो...ये घर मेरा है....
एक चुटकी सिंदूर की कीमत एक चुटकी है। जो उसे पल भर में दर बदर कर देती है। आधी रात को अपना सामान लेकर कहां जाए। बेशर्म औरतें फिर भी वहां पड़ी रहती हैं।
नयी पीढ़ी की अमृता बेशर्म स्त्री नहीं है। उसमें स्वाभिमान बाकी है। वह उस रिश्ते में, उस घर में रहने से इंकार कर देती है।
फिल्म में एक जगह वह कहती है,  "पता है उस थप्पड़ से क्या हुआ? उस एक थप्पड़ से ना मुझे वो सारी अनफेयर चीजें साफ-साफ दिखने लग गईं जिसको मैं अनदेखा करके मूवऑन करती जा रही थी।"
अमृता अब तक अपनी शादी में अपनी जगह ढूंढ रही थी। उसे चोट लगी। क्योंकि उसने अपने लिए अलग से थोड़ी-सी खुशी भी नहीं बचा रखी थी। इस रिश्ते से बाहर आकर अब उसे अपने खालीपन को भरना है। वह बहुत साफ-साफ कहती है, "उसने मुझे मारा; पहली बार। नहीं मार सकता। बस इतनी सी बात है। और मेरी पिटिशन भी इतनी-सी है।"
बस इतनी-सी बात समाज को और मामूली लगती है। बस अमृता की लड़ाई इस थप्पड़ को मामूली नही बनने देने की है। थप्पड़ तो एक बहाना है, उसके माध्यम से समाज के सारे सगे संबंधियों के असली चेहरे, उनकी भूमिका एक्सपोज हो जाती है।
थप्पड़ अमृता (तापसी पन्नू) को लगता है मगर उसका असर उसकी पड़ोसी शिवानी (दिया मिर्जा), उसकी मां संध्या (रत्ना पाठक शाह), उसकी सास सुलक्षणा (तन्वी आज़मी), उसकी वकील नेत्रा (माया), उसकी हाउस हेल्पर (गीतिका विद्या) के जीवन में भी पड़ता हैं। सबके दुख उजागर होते हैं। अपने अरमानों के कब्रगाह पर बैठी मातमी ये सभी स्त्रियां शोक-पत्र की तरह पढ़ी जा सकती हैं।
ये स्त्रियां ऊपर-ऊपर शांत जीवन जी रही है। उनके भीतर जीवन जैसे थम चुका है। इसीलिए उन्हें एक थप्पड़ पर आश्चर्य नही होता। न ही कोई अफसोस। ये तो होता रहता है...टाइप मसला है। रात को लात-जूते खाओ, सुबह काम पर जाओ। भूल जाओ...आगे बढ़ो।
मेरे गाल, तुम्हारे थप्पड़....जश्न मनाओ।
सास कहती है- औरतों को बर्दाश्त करना सीखना चाहिए।
मां कहती है- मैंने नहीं सहा, बहुत कुछ करना चाहती थी, परिवार के लिए सब छोड़ दिया।
पति कहता है- मैं गुस्से में था, तुम बीच में आ गई।
भाई कहता है- उस वक्त वो तनाव में था, हो गया। हमें समझना चाहिए।
सबके पास अपने जस्टिफिकेशन है, तर्क हैं। किसी के पास एक सॉरी नही है। किसी को नहीं लगता कि ये गलत हुआ, बहुत गलत।
फिल्मकार अनुभव सिन्हा यहां सबको कटघरे में खड़ा कर देते हैं। मुल्क और आर्टिकल-15 जैसी फिल्मों के निर्देशक अनुभव सिन्हा का यह थप्पड़ हिंदी सिनेमा को याद रहेगा। लेकिन इस फिल्म को घरेलू हिंसा के खांचे में न डाले। घरेलू हिंसा का सतही अर्थ निकालते है हम। यातना को कोई पैटर्न सेट है क्या। रात-दिन ताने मार कर मुर्दा कर देना, किस खांचे में डालेंगे। आपकी कसौटी पर खरी न उतरने वाली, औरत की आत्मा को छीलते जाने को क्या कहेंगे। भोजन-प्रेमी पेटुओ की पत्नियों को छप्पन भोग बनाना आना चाहिए, नहीं तो वो घरेलू सहायिकाओं को गले लगा लेंगे। जो उनकी लपलपाती जिव्हा के लिए भोजन तैयार करती रहती है। मध्यवर्गीय पुरुषों को अपनी औरतें काम पर दिखनी चाहिए। चाहे बच्चा उठाए हों या रसोई में खटर-पटर करती हुई। एक भुक्तभोगी औरत ने कहा था- आप कोई काम मत करो, जब पति घर में हों, तो बस उसके सामने काम करती हुई दिखो...उन्हें ये बात बहुत भाती हैं कि उनकी बीवी कितना काम करती है, उनके लिए कितनी समर्पित हैं।
पाखंड करो...प्रेम का पाखंड, समर्पण का पाखंड... ऐ जी, वो जी करते रहो, आरती उतारते रहो, नहीं तो वो आत्मा छील कर सुखा देंगे।
अनुभव सिन्हा यहां उनको एक्सपोज कर देते हैं। सिनेमाई खांचे तोड़ देते हैं। इसीलिए इस फिल्म को किसी जॉनर में न रखें। फिल्म थ्योरिस्ट रॉबर्ट स्टेम का मानना है कि कुछ बेहतरीन फिल्मों को जॉनर फ्री रखना चाहिए।
अनुभव की ये फिल्म वैसी ही है। सबसे अलग, सबसे जुदा। अलग शैली में अपनी कथा कहती हुई। फिल्म को प्रारंभ से ही ध्यान से देखना चाहिए। कथा-कोलाज से कुछ दृश्य है, अलग-अलग फ्रेम में। अलग अलग पात्र हैं, उनकी बातें हैं, उनके सुख-दुख हैं। बाद से सारे पात्र एक दूसरे से जुड़ते हैं। सबके जीवन में कोई न कोई समस्या चल रही है। सबके केंद्र में स्त्री है। यह स्त्री सिनेमा है या स्त्री के बहाने जिंदगी का सिनेमा है। जिंदगी अपने आप में एक जॉनर है। निर्मम और संघर्षपूर्ण । उसके पास दया-माया नहीं।
औरत तो दोहरा शिकार है। एक तो जिंदगी का कहर, ऊपर से उसकी जिंदगी भी अपने नियंत्रण में नहीं।
विवाह उसके लिए होलोकास्ट साबित होता है। जिसमें अपना मन, इच्छाएं और स्वप्न सब किसी और के नियंत्रण में दे देना होता है। विवाह एक यातना शिविर बन जाता है उसके लिए। यह फिल्म उसी यातना शिविर से बाहर निकलने का शंखनाद है। एक सलाह भी है कि वैवाहिक हिंसा को रोकना हो तो पहले थप्पड़ पर ही प्रतिवाद जरुरी है। हिंसा के बदले हिंसा की पैरोकारी नहीं करती ये फिल्म। फिल्म की नायिका अमृता चाहती तो भरी पार्टी में पति के थप्पड़ का जवाब थप्पड़ से दे कर हिसाब बराबर कर सकती थी। उसने ऐसा नहीं किया। क्योंकि प्रतिशोध लेना उसका मकसद नहीं था। अपने कंफर्ट जोन से बाहर निकल कर दुनिया को मैसेज देना जरुरी था।
बस एक कदम, एक कदम की दूरी पर है रिहाई। नायिका बिल्कुल लाउड नहीं होती है। कोई चीख या चिल्लाहट या विलाप उसके एक्शन में नहीं है। उसके पास है तो सिर्फ थोड़ी-सी खुशी पाने की चाहत। उम्मीदें, जो अब भी कहीं बची हुई थीं। अंधेरे में जुगनू भी रोशनी की उम्मीद की तरह होता है।
अनुभव की एक बात माननी पड़ेगी....
वे अपने पात्रों के प्रति बहुत क्रूर नहीं होते। फिल्म को दुखांत और सुखांत के बीच झूला बना कर छोड़ देते हैं। या कहें कि एक उम्मीद की चिंगारी छोड़ देते हैं। वे मानते हैं कि किसी इंसान में सुधार की गुंजाइश हमेशा होती है। अंत बिल्कुल फार्मूलाबद्ध नहीं कि तलाक के पेपर पर साइन होने से पहले दोनों मिल जाए। स्त्री का दिल पिघल जाए, वो माफ कर दे। दर्शक खुश, पैसा वसूल। ये मकसद नहीं था अनुभव का। मगर उन्होंने नायक क मुंह से सॉरी बुलवाया और ये कहलवाया कि वो अमृता का दिल फिर से जीतने की कोशिश करेगा।
पता नहीं , वो कितना कामयाब हुआ, या नहीं हुआ...बीच में एक बच्चा भी है, जो अमृता के गर्भ में है। उसके आने के बाद क्या परिस्थितियां रहेंगी, यह सब कुछ दर्शको के सोचने के लिए छोड़ दिया।
अनुभव ने फिल्म में कुछ पात्रों को बहुत सपोर्टिव दिखाया है। सारे पति हिंसक नहीं होते। जैसे दिया मिर्जा के दिवंगत पति। सपोर्टिव पुरुष जैसे नायिका का पिता। जैसा आजकल के पिता होते हैं। वे पत्नियों के मामले में बेहद संकीर्ण होते हैं, बेटियों के मामले में उनका व्यवहार उल्टा होता है। वे बेटियों के साथ हर लड़ाई में डट कर खड़े होते हैं। अपना दरवाजा उसके लिए खुला रखते हैं। यहां मां का किरदार कटघरे में है जो ये मानती है कि बेटी का असली घर उसका पति का घर होता है। बहुत बड़ा छलावा है, फरेब है औरतों के साथ। औरतो को बताइए कि तेरा कोई घर नहीं होता बन्नो। अपने दम बना घर।  
अमृता की वकील है, नेत्रा (माया) उसका किरदार एकदम रियल है। धनाढ़य पति और ससुर के दम पर वकालत में अपना सिक्का जमाती है, मगर उसका दम घुटता है। क्योंकि वह पति की नजर में सिर्फ एक सेक्स ऑब्जेक्ट है। एक ऐसी स्त्री जो उसकी पोजीशन का लाभ लेकर सफलता हासिल करती है। अंत में उस धन दौलत, पोजीशन सबको ठोकर मार कर खुद को पिंजरे से आजाद कर लेती है।
एक कामवाली बाई है। रोज घर में पति पीटता है। अंत में वो हाथ उठा लेती है। पति को पीटती हुई कहती है- तू पीट मुझे, मगर मुझे जिंदगी तो जी लेने दे...।
एक स्त्री है, दिया मिर्जा। सिंगल मदर, विधवा है। उसकी किशोर बेटी उसके लिए साथी ढूंढना चाहती है। नहीं मिलता तो अंत में मां , बेटी दोनों इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अकेले ही वे ज्यादा खुश है।
सिंगल औरतें हर थप्पड़, हर धौंस और हर कैद से मुक्त हैं। मन का साथी न मिले तो एकल जीवन सबसे बेहतर विकल्प।

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Posted By Geetashree On 12:13 AM 1 comments

सभ्यता की पुर्नखोज में अर्चना के चित्र

-गीताश्री

समकालीन चितेरी अर्चना सिन्हा के चित्रों से इसी काल में गुजरी हूं। बड़ा गुमान था कि कला पर लिखती हूं और कलाकारो को जानती हूं। पिछले 25 वर्षों से चित्रकारी कर रही अर्चना के चित्रों को कैसे न देख पाई थी। वो छुपी थीं या मैं बेपरवाह थी। दोनों के कदमों में हिचकिचाहट थी। नाम से जानते थे, काम से नहीं। जब काम यानी कला पास आती है तब काल भूल जाते हैं। मैं काल लांघ कर चित्र-यात्रा कर रही हूं।
बरसात की सिंदूरी सांझ में मैं अर्चना के सिंदूरी चित्रों से गुजर रही हूं...और हरेक शय पर उसकी छाप पड़ती जा रही है।
छाप से याद आया...अर्चना छापा कला की कलाकार थीं। सालो तक छापा कला में खूब काम किया, अपना मुकाम हासिल किया, फिर पिछले एक दशक से पेंटिंग की तरफ मुड़ी और तो साथ लाई सिंदूरी रंग। ब्याहता स्त्रियों की पहचान का रंग। उनकी मांग से होते हुए सिंदूर कैनवस पर उपस्थित हो गया, एक पावरफुल प्रतीक के रुप में।  
छापा कला से बहुत से लोग परिचित होंगे। भारत में पुर्तगीज मिशनरियों के लकड़ी के प्रिंटिंग प्रेस के साथ यह कला आई और ब्रिटिश काल में छा गई। भारतीय कलाकारों ने इस माध्यम की संभावनाओं को पहचान कर इसे अपनाया और इससे बड़े बड़े कलाकार जुड़े। आर एन चक्रवर्ती, नन्दलाल बोस, सोमनाथ होर, विनोदबिहारी मुखर्जी, हरेन दास जैसे बड़े नामी कलाकारो के छापा चित्रों ने कला जगत में धूम मचाई। चितेरी अर्चना उसी परंपरा से जुड़ी थीं। छापा कला में सहजता है, जो संप्रेषणीयता है, वो उन्हें आकर्षित करती होगी।
आज बात करेंगे उनकी पेंटिंग्स की। गौर से देखिएगा-
रंग और रुपाकार बहुत कुछ कहते हैं। मूर्तिकार मृणालिनी मुखर्जी अपने चित्रों के बारे में कहती थीं- ये मेरे निजी देवता हैं।
अर्चना की पेंटिंग्स भी उनके निजी देवता की तरह दिखाई देते हैं जिनके लिए वे मंत्रों का पाठ करती दिखाई देती हैं। जिनके लिए वे भारतीय वांग्मय से मंत्रों की खोज करती हैं। चित्रों में सिंदूर को लेकर अनेक प्रयोग किए हैं और चितेरी को भारतीय मिथको में गहरी आस्था दिखाई देती है। जो अपने लोक में गहरे धंसा हो वो जीवन भर अपनी कला में उसकी पुनर्खोज करता है या नये सिरे से अविष्कार भी करता है। कैनवस पर मंत्रों की लिपियां हैं। उसके पारंपरिक रंग हैं। छापा कला में भी वे अपने लोक को चित्रित करती थीं, यहां वे थोड़ा आगे बढ़ कर मंत्रों तक जा पहुंचती हैं। उनकी ताकत पहचानने की कोशिश करती हैं। हो सकता है चित्रकार का मंत्रों पर गहरी आस्था हो।
इतने बड़े आर्थिक, सामाजिक संघर्षों और दबावों के बावजूद यदि कुछ चीजें जिंदा हैं तो यही उसकी शक्ति है। उसी शक्ति की शिनाख्त करती हैं अर्चना।
एक स्त्री जब पेंट करती है तब वह दुनिया को अपने रंग में रंग देना चाहती है। दुनिया का रंग-रुप अपने हिसाब से, अपनी स्वैर कल्पना सरीखा कर देना चाहती है। इनके चित्रों में उस फंतासी को देखा जा सकता है जो मंत्रों की ताकत को खोजने से मिलती है।
मंत्रों पर विश्वास-अविश्वास के वाबजूद भारतीय चेतना में , एक बड़े वर्ग में इसकी मौजूदगी देखी जा सकती है। सिंदूरी रंग उसी चेतना से निकला हुआ रंग है। यहां एक स्त्री चित्रकार को महसूस कर सकते हैं जो अपने परिवेश से रंग उठा लेती है। ये अनुभव का आवेग है, जिसे दबाया नहीं जा सकता। और अनुभव का आवेग दर्ज होकर रहता है, उसमें झिझक नहीं होती।
अर्चना नालंदा जिले के अपने गांव सरमेरा से चली थीं, पटना की ओर, शहर में बस गईं मगर गांव छूटा नहीं। उनकी चेतना में गांव बसा रहा, आज तक बसा हुआ है, अपनी विभिन्न छवियों के साथ। छापा कला में भी गांव चित्रित होता रहा। एक गंवई लड़की भला कैसे छोड़ सकती है, झुग्गी, झोपड़ी, खेत-खलिहान । अपनी चित्र-भाषा में तलाशती रही गांव। रचती रही वे घर, कच्चे पक्के, धूल भरी पगंडंडियां, जिन्हें पीछे छोड़ आई थी।
भूगोल विषय में अच्छे नंबर लाने वाली अर्चना को गांव का भूगोल कभी भूलता नहीं। बचपन से पढ़ने में मन न लगे। मन तो रमता था दृश्यों को रचने में। जो दृश्य देखें उनकी छाप दिल दिमाग पर छप जाए। बाकी सारे विषय उन्हें अरुचिकर लगते थे। अमृता शेरगिल से प्रभावित अर्चना उन्हीं की तरह अपने परिवेश को चित्रित करना चाहती थी। उसकी चिंताओं से, सरोकारो से कभी दूर नहीं जा पाईं।
गांव की स्मृतियों से निकल कर वे भारतीय मिथको की ओर रुख करती हैं, मंत्रों की ताकत को सिंदूरी रंगों की आभा में ढूंढती हैं। अमूर्तन में एक निरंतर खोज और स्मृतियों का झोंका है यहां।
अर्चना की एक पेंटिग देखते हुए मुझे प्रसिद्ध चित्रकार जे. स्वामीनाथन का एक कथन याद आता है- नयी कला की सबसे बड़ी जरुरत यह है कि कलाकार , कैनवस के सम्मुख उस तरह खड़ा हो, जैसे कि आर्य लोग प्रात:कालीन सूर्य के सामने खड़े होते थे।
एक चित्र में धुंधली-सी आकृति (सेमी आब्सट्रैक्ट) सूर्य के सामने वैसे ही खड़ी है। अर्चना इस सीरीज के चित्रों में आर्य सभ्यता के रहस्यों को खंगालती हैं।

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-गीताश्री

 

Posted By Geetashree On 3:33 AM 2 comments

आलेख

विषय-
महिला लेखन की चुनौतियां और संभावना

-गीताश्री

कोई औरत कलम उठाए
इतना दीठ जीव कहलाए
उसकी गलती सुधर न पाए
उसके तो लेखे तो बस ये है
पहने-ओढे, नाचे गाए...

----(वर्जिनिया वुल्फ)

प्रसिद्ध स्त्रीवादी लेखिका वर्जिनिया वुल्फ ने जिन दिनों औरत और कथा साहित्य विषय पर भाषण देने की तैयारी कर रही थीं उन दिनों जो उन्हें सदमा लगा होगा, उसकी सहज कल्पना की जा सकती है। उस समय यह विषय जितना चुनौतीपूर्ण था, आज यह विषय भी उतना ही चुनौतीपूर्ण है। स्त्री लेखन के सामने चुनौतियां ही चुनौतियां हैं। सवालों के कटघरे हैं। आरोपो की बौछार है और खारिजो का इतिहास है। संभावनाओ को तब टटोला जाए जब चुनौतियों से निजात मिले। उसकी सांस में सांस आए और इस बात की तसल्ली हो कि वह सदिग्ध नहीं है और उसके लेखन को गंभीरता से लिया जा रहा है। लेखन उसके लिए भी प्राथमिक और गंभीर कर्म है।  
यह बहुत व्यापक और जरुरी प्रश्न है जिससे मौजूदा समय को जरुर जूझना चाहिए। वुल्फ ने उस दौरान पाया कि औरतों को लेकर पढ़े लिखे मर्दवादी समाज की सोच बहुत घटिया थी। वे सोचते थे कि औरतों का कथा साहित्य से क्या लेना देना। तब तक औरते भी अघोषित प्रतिबंध की काली भुतैली छाया से ग्रसित थीं। उन्हें अभिव्यक्ति की न आजादी थी न मौका था। न उनके भीतर चाहत जोर मार रही थी। कमतरी का अहसास औरतों में कूट कूट कर भर दिया गया था। उस दौर के बड़े बड़े विद्वान औरतों के बारे में अपनी बहुत घटिया राय व्यक्त करते थे जो औरतों का मनोबल तोड़ते रहते थे। इतिहास गवाह है कि पश्चिम के कुछ पुस्तकालयों में औरतों को अकेले घुसने तक की मनाही थी।
वही औरतें जब लेखन करने लगीं तो उन्हें वहां का समाज लिखने की खुजली वाली कुलीनाकह कर उनका मजाक उड़ाया।
इतिहास गवाह है कि लेखन के लिए औरतों ने समय समय पर बहुत यातनाएं सही हैं और आज भी सह रही हैं। चेकोस्लोवाकिया की पत्रकार , काफ्का की मित्र के रुप में मशहूर मिलेना इतनी निडर थीं कि उनके लिखे से खपा होकर नाजियों ने यातना शिविर में डाल दिया। उन्हें लेखन की वजह से दोहरी यातना सहनी पड़ी। जब उन्हें अपनी पार्टी के चरित्र में गिरावट दिखा, कथनी और करनी का फर्क दिखा तो उन्होंने लिख कर कड़ा प्रतिवाद जताया। पार्टी ने उन्हें संगठन से निकाल बाहर कर दिया।
पश्चिम का समाज हो या पूरब का। पुरुषसत्ता को पढीलिखी स्त्रियों से हमेशा खतरा महसूस हुआ है। स्त्रियों को शिक्षित करना उनकी मजबूरी थी ताकि उनकी संततियां ठीक से पले बढ़े। उन्हें तब अहसास कहां कि ये पढ़ीलिखी स्त्रियां एकदिन पढ़ने से आगे निकल कर लिखने लगेंगी। शिक्षा ने उनकी चेतना को इतना जाग्रत कर दिया कि वे अपनी जुबान में बोलना और लिखना सीख गईं।
अपने भीतर की गूंगी गुड़िया को मार कर अपने लिए एक कोना तलाश रही इसी दीठ स्त्री ने कलम क्या पकड़ी, अपने मन का लिखना क्या शुरू किया, हलचल-सी मच गयी! जैसे ही उसने युगों युगों से सुप्त चेतना को जगाया, उसके आसमान को अपने मुट्ठी भर सितारों से सजाया, स्थापित मठों में खलबली मच गई। जैसे ही उसने अपने अनुभवों को अपने नए शिल्प और कथ्य में कहना शुरू किया, वैसे ही साहित्य की दुनिया में प्रश्नों के गोले चलने लगे!
अब तक तो पुरुष ही उनके बारे में लिखने के अधिकारी थे। तरह तरह के श्लोक गढ़ कर उन्हें मूर्ख बनाते और देवी का दर्जा देकर कैद रखते थे। वे इसी में खुश थीं कि वे देवी हैं, मां हैं, जगतजननी हैं, गृहलक्ष्मी हैं, गृह-शोभा हैं....न जाने क्या क्या हैं। बाहरी दुनिया से कटी हुई औरतें सपने भी घर आंगन के ही देखा करती थीं। उनके बारे में पुरुषों ने जो लिखा, उसी से उन्होंने खुद को जाना। अपनी खोज खुद की ही नहीं। जब चेतना जागी और खुद को एक्सप्लोर करना शुरु किया तो हंगामा स्वभाविक था। उनकी बनाई सारी छविया ध्वस्त हो गईं । सारा फरेब सामने आ गया। कैसा महसूस किया होगा उस पहली स्त्री ने जब पन्ने पर कुछ लिखा होगा...
निर्भय तो वह तब भी नहीं रही होगी। कांपते हाथों ने रचे होंगे कुछ शब्द पहली बार..उसकी खुशबू में नन्हें शिशु के बदन-सी खुशबू होगी। वह खुशबू हर स्त्री के नथुनों में भरी रहती है जब वह पहली बार कुछ रचती है तो वही गंध घेरती है उसे।
अपनी रचना को लेकर मन दहलता तो होगा । क्योंकि उसके लिए आसान नहीं अपना दुर्ग बनाना। चौखट से बाहर पैर और पन्ने पर पहली इबारत उसकी मुसीबतों का आगाज है।
अपने से हीनतर समझने वाला मर्दवादी समाज ने स्त्री को जैसे ही अधिक शिक्षित, तार्किक, या बुद्धिमान पाया वैसे ही उसमें अन्दर ही अन्दर एक ख़तरा उत्पन्न हुआ, क्योंकि पुरुष स्वभावत: सुप्रीमो-सिंड्रोम से भरा होता है। जैसे ही उसकी सर्वोच्चता को चुनौती मिलती है, वह विचलित हो उठता है और अनर्गल प्रलापों की एक श्रृंखला आरम्भ कर देता है, क्योंकि अहंकारवादी सत्ता यह कैसे सहन कर लेगी कि एक स्त्री की सामाजिक या बौद्धिक स्थिति उसके समान या उससे सर्वोच्च हो जाए। जब सदियों से उसने स्त्री को अपनी संपत्ति समझा है तो कैसे उसे बर्दाश्त होगा कि उससे कमतर, उसके साथ बैठकर उससे साहित्य या कला या कहानी आदि के बारे में बात करे? और जब होगा तब वह उसे खारिज करेगा। वह उसे समकालीन मुद्दों या समकालीन समस्याओं पर बात करने से भयभीत होने वाली बताएगा? वह साहित्य में कदम रख रही या साहित्यरत स्त्रियों को बौद्धिकता की कसौटी पर हराने की बात करेगा! वह उस वर्चस्व की खातिर उस क्रान्ति को अनदेखा करेगा जिसे रोकना अब उसके वश में नहीं है. आज स्त्री साहित्य में अपने मन की बात कहने के लिए पुरुष की अनुमति की चाह नहीं रखती है. अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, या मैं नीर भरी दुःख की बदली, से कहीं आगे आकर स्त्री अब अपने मन की आकांक्षाएं लिखने में विश्वास करने लगी है. वह अपने मन का आसमान रंगने लगी है, तो शोर तो होना ही था. शोर मचा, और उसे केवल उसकी देह के आसपास ही समेट देने की साजिशें रची जाने लगी।  
कमाल है, नख और शिख का वर्णन किया आपने, स्त्री देह के कोने कोने को परखने के बाद अपनी रचनाओं में जी भर कर लिखा आपने, पर देह के उपयोग का आरोप लगाकर लेखन को बाधित करने का आरोप लगा स्त्रियों पर? अगर पुरुषों ने कोख के अधिकार या विवाह के उपरान्त यौन स्वतंत्रता पर लिखा तो उन्हें आदर्श या क्रांतिकारी माना गया पर यही कोख का अधिकार अगर स्त्री अपने लेखन में करती है तो उसे समाज को तोड़ने वाली, परिवार संस्था पर प्रहार करने वाली, स्त्री के अधिकारों पर डाका डालने वाली कहा जाता है! उसे देह के आगोश में आगे बढ़ने वाली कहकर बार बार हतोत्साहित किया जाता है। तब सवाल उठता है कि आखिर क्यों? आखिर क्यों बार बार स्त्री लेखन सीता की तरह अग्निपरीक्षा देगा? स्त्री लेखन पर सवाल उठाना आज सबसे आसान काम है। क्योंकि जो जागृत चेतना है उसे जब आप सहन नहीं कर सकते हैं, और जब आप उससे मुकाबला नहीं कर सकते हैं तो आपको उसे दबाने में ही आपको अपना भला नज़र आएगा।
अगर नहीं दबा पाएंगे तो आपने अनुकूलता के लिए बहुत ही अच्छे जुमले गढ़े हैं- “अमुक महिला का लेखन तो स्त्री लेखन जैसा लगता ही नहीं है, यह तो एकदम पुरुष लेखन के जैसा है।” इसका अर्थ यह हुआ कि पहले तो स्त्री लेखन को आपने पहचान दी नहीं और जब पहचान दी तो उसे केवल अपने ही दायरे में बांधकर रख दिया? कथा साहित्य में इस समय लेखिकाएं बहुतायत में है, काफी लिखा जा रहा है, हर विषय पर लिखा जा रहा है, फिर भी स्त्रियों का लेखन मुख्यधारा का क्यों नहीं माना जाता? शायद अभी भी श्रेष्ठभाव से ग्रसित स्त्री लेखन को उसी पूर्वाग्रह के नजरिये से देखते हैं कि पहला स्त्री मौलिक लेखन नहीं कर सकती और दूसरा स्त्री घर के चार दीवारी से आगे नहीं निकल सकती।
स्त्री-लेखन में लेखिका के पति या किसी पुरुष साथी से जोड़ कर देखा जाता है, उस सृजन के लिए जो नितांत उस स्त्री का है। चूंकि स्त्री मौलिक नहीं लिख सकती है तो उसके लेखन की प्रेरणा तो कोई होगी ही न! और जब स्त्री लेखन पर यह आरोप लगता है कि वह रसोई और स्त्री पुरुष सम्बन्धों से अलग विषयों पर नहीं लिख सकती तो यह कहा जा सकता है स्त्री लेखन में यदि दांपत्य जीवन, विवाहेतर संबंधों, पारिवारिक मूल्य, निज स्वतंत्रता आदि विषय हैं तो यह होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि इन विषयों को ही स्त्रियों ने देखा है, बचपन से भोगा है। यही तो स्त्रियों का टभकता हुआ घाव है। ऐसी कहानियां लिख कर आने वाली पीढ़ियों को सतर्क और सजग भी किया है।
स्त्री लेखन को नकारा जाना आज भी उतना ही प्रचलित है जितना पहले था, उसे पुरुषवादी मानसिकता से स्वीकृति लेनी ही चाहिए, नहीं तो घर परिवार की जिम्मेदारी उठाते हुए मजबूरन लेखिका की श्रेणी में तो डाल दिया जाता है परन्तु उसकी सफलता के लिए जब “अमुक महिला एकदम पुरुषों-सा रच रही है” का दायरा हो जाता है तो ऐसा लगता है कि स्त्रियों का तमाम संघर्ष इसी एक पंक्ति पर दम तोड़ देता है, और वर्चस्ववाद जीत जाता है।
आवश्यकता है कि अब स्त्रियां जिस प्रकार कथा, कविता में आ रही हैं उसी प्रकार आलोचना में भी आएं, आलोचना के अपने मानदंड घोषित करें। अनंत संभावनाएं हैं। स्त्री लेखन को अलग से चिन्हित करने को लेकर भी लेखिकाओ में मतभिन्नता है। वे चाहे कितना भी प्रतिरोध जताएं कि स्त्री लेखन को मुख्यधारा के साहित्य से जोड़कर देखें, उन्हें अलग से ही चिन्हित किया जाता रहेगा। पत्रिकाओं के निकलने वाले स्त्री लेखन विशेषांक इस बात की तस्दीक करते हैं।