चित्रलेखा, पाप और प्रेम

Posted By Geetashree On 12:14 AM 9 comments
राजकिशोर जी ने चित्रलेखा(उपन्यास-भगवती चरण वर्मा) पर लंबा लेख लिखा और मुझे पढने को भेजा। वे मेरी इस पर मेरी पाठकीय प्रतिक्रिया चाहते थे। लेख बहुत लंबा था.. लगभग 6 हजार शब्दों का। ब्लाग के लिहाज से ज्यादा बड़ा। नहीं तो मैं पहले ही इसे पोस्ट कर चुकी होती। हाल ही में हंस के अगले अंक में समूचा लेख छपने की घोषणा देखी। मैंने इसके कुछ अंश छांट कर अपनी पसंद के निकाल लिए हैं आप भी पढें...आनंद आएगा। चित्रलेखा मेरे जीवन की उन किताबों में शामिल हैं, जिन्होंने मुझे बिगाड़ा और हमेशा हमेशा के लिए पाप-पुण्य को लेकर जो मन में कुंठाएं थीं..वो गांठे खोल कर मुझे अपनी ही कैद से मुक्त कर दिया। मैं राजकिशोर जी से कई प्रसंगो में असहमति रखती हूं...मगर यह लेख चित्रलेखा को नए सिरे से समझने में मदद तो करता ही है...आगे आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा है...गीताश्री



राजकिशोर

भगवतीचरण वर्मा का उपन्यास ‘चित्रलेखा’ कई दृष्टियों से एक मोहक उपन्यास है। इसकी शुरुआत इस प्रश्न से होती है कि पाप क्या है और उत्तर यह निकलता है कि हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता है। जाहिर है, सवाल जितना ठोस है, उत्तर उतना ही भुरभुरा -- और भ्रामक भी। अगर हम हमेशा वही करते हैं, जो हमें करना पड़ता है, तो पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक आदि के आग्रह समाज से, और व्यक्ति के मन से भी, कभी के खत्म हो चुके होते। लेकिन ये प्रश्न हर पीढ़ी के सामने नए सिरे से उपस्थित हो जाते हैं और क्या करणीय है तथा क्या करणीय नहीं है, इस पर बहस बनी रहती है। फिर भी यह उपन्यास पाठकों में लगातार लोकप्रिय रहा है, तो इसका अकेला कारण यह नहीं हो सकता कि कथा और भाषा-शैली की दृष्टि से यह बहुत सरल है और कुछ कम पढ़ा-लिखा आदमी भी इसका स्वाद ले सकता है। ‘चित्रलेखा’ की सफलता का रहस्य मुझे यह लगता है कि इस उपन्यास में प्रेम तथा स्त्री-पुरुष संबंध के बारे में कुछ बुनियादी सत्यों को उजागर करने में लेखक को जबरदस्त सफलता मिली है। आलोचकों के लिए ‘चित्रलेखा’ विशेष काम की नहीं है, क्योंकि वे जो मानते हैं या मनवाना चाहते हैं, उसके लिए समर्थन सामग्री इस उपन्यास में नहीं है। इसकी भाषा भी कुछ पुराने ढंग की है। मुझे लगता है कि अगर भाषा और विचार के पूर्वाग्रहों को दरकिनार रख कर देखना संभव हो, तो यह उपन्यास कुछ ऐसे सत्यों को प्रकाश में लाने में सक्षम है जिनकी चर्चा आज और अधिक प्रासंगिक है।

पाप से प्रारंभ
‘और पाप?’ -- इस गूढ़ प्रश्न का उत्तर पाने के लिए आचार्य रत्नांबर अपने शिष्य श्वेतांक को सामंत बीजगुप्त के पास भेजते हैं, तो यह समझ में आता है। गुरुवर बीजगुप्त का परिचय भोगी के रूप में देते हैं, ‘उसके हृदय में यौवन की उमंग है और आंखों में मादकता की लाली। उसकी विशाल अट्टालिकाओं में भोग-विलास नाचा करते हैं; रत्नजटित मदिरा के पात्रों में ही उसके जीवन का सारा सुख है। वैभव और उल्लास की तरंगों में वह केलि करता है, ऐश्वर्य की उसके पास कमी नहीं है। उसमें सौंदर्य है, और उसके हृदय में संसार की समस्त वासनाओं का निवास। ...’ जहां वासना है, भोग है, विलास है, मदिरा है, वहां पाप का निवास असंभावित नहीं। ‘चित्रलेखा’ के पात्र जिस युग के हैं, उस युग में ऐश्वर्य को निन्दा की निगाह से नहीं देखा जाता था। पर सौंदर्य की उपासना और मदिरा के उपभोग में सुख की खोज की बहुत प्रशंसा भी नहीं की जाती होगी। इसलिए पाप की खोज के लिए बीजगुप्त का विलासी जीवन सहज ही एक उपयुक्त क्षेत्र था।

परंतु योगी कुमारगिरि? क्या उसके जीवन में भी या उनके आसपास पाप को समझने की गुंजाइश थी? कुमारगिरि के बारे में बताते हुए महाप्रभु रत्नांबर जिन विशेषणों का उपयोग करते हैं, उन सभी में कुछ पेच है : ‘कुमारगिरि योगी है, उसका दावा है कि उसने संसार की समस्त वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है। संसार से उसको विरक्ति है, और अपने मतानुसार उसने सुख को भी जान लिया है; ...जैसा कि लोगों का कहना है, उसने ममत्व को वशीभूत कर लिया है। कुमारगिरि युवा है; पर यौवन और विराग ने मिल कर उसमें एक अलौकिक शक्ति उत्पन्न कर दी है। ...’ यानी कुमारगिरि की जो छवि या आत्मछवि है, उसकी हकीकत में आचार्य को पर्याप्त शक है।

बीजगुप्त और कुमारगिरि में साम्य यह है कि दोनों युवा हैं और दोनों के पास शक्ति है – एक के पास वैभव की शक्ति है, तो दूसरे के पास विराग की। जहां शक्तिहीनता है, निर्बलता है, वहां पाप क्या होगा, बशर्ते निर्बल होने या निर्बलता को स्वीकार कर लिए जाने को ही पाप न मान लिया जाए? इस दूसरे तर्क को आज हम समझ सकते हैं, बल्कि समझते भी हैं। इसीलिए शक्तिशाली को घृणा की निगाह से देखने का नया रिवाज अनुचित नहीं है। पर बीजगुप्त और कुमारगिरि के जमाने में भी शक्ति-संग्रह में पाप की संभावना देखी गई, यह एक आधुनिक विचार है। नि:संदेह भगवतीचरण वर्मा एक तरह से नियतिवादी (‘सबहिं नचावत राम गोसाइ’ वर्मा जी का एक और महत्वपूर्ण उपन्यास है) दिखाई देते हुए भी अपने अनेक विचारों और स्थापनाओं में आधुनिक हैं।

प्रेम का परिपाक
अब यह आपत्ति सर्वमान्य हो चुकी है कि पाप को स्त्री-पुरुष संबंधों या उनकी यौन क्रियाओं के दायरे तक सीमित रखना अपने आपमें ही पापपूर्ण है। पाप-पुण्य या नैतिकता-अनैतिकता पर विचार करने का दायरा बड़ा होना चाहिए। लेकिन यह धारणा अभी भी बौध्दिक समाज तक सीमित है। साधारण आदमी की नजर में पाप का सबसे नजदीकी रिश्तेदार सेक्स ही है – या, कहिए अवैध सेक्स। यह मान्यता भी आधारहीन नहीं कि जहां भी स्त्री-पुरुष संबंध होगा, वहां सेक्स का होना अनिवार्य है। इसलिए पाप की ओर इशारा करनेवाली सुई इस संबंध की ओर अपने आप मुड़ जाती है। दिलचस्प है कि ‘चित्रलेखा’ में दोनों का ही संतोषजनक विवेचन मिलता है।

यह भगवतीचरण वर्मा की चतुराई, या भीरुता, है कि प्रेम प्रसंगों से भरे हुए इस रसीले उपन्यास में सिर्फ एक स्थान पर यौन गतिविधि दिखाई देती है - वहां, जहां यह सर्वथा वर्जित था। पाटलिपुत्र की असाधारण सुंदरी और पेशे से नर्तकी चित्रलेखा योगी कुमारगिरि की अलौकिक शक्तियों और विरक्त यौवन से आकर्षित हो कर उससे दीक्षा लेने उसके आश्रम पहुंच जाती है और कुमारगिरि की वासना जाग उठती है। हालांकि योगी बार-बार दुहराता है कि उसे चित्रलेखा से प्रेम है, पर चित्रलेखा को उसके इस दावे में कोई सार नजर नहीं आता। नि:संदेह वह एक समर्पित नायिका की तरह ही कुमारगिरि के पास गई थी - बीजगुप्त के प्रति अपने प्रेम को थपकी दे-दे कर सुलाते हुए। योग की सच्ची साधना करते हुए कुमारगुप्त ने उसका लौकिक स्तर पर प्रत्युत्तर दिया होता, तो दोनों के बीच एक लंबा चलनेवाला प्रेम संबंध विकसित हो सकता था। शायद यौन स्तर पर भी यह चित्रलेखा के लिए यह ज्यादा आनंदमय होता, क्योंकि निरंतर भोग-विलास और अनवरत मदिरा पान से सामंत बीजगुप्त शारीरिक स्तर पर जरूर खोखला हो गया होगा।

पर कुमारगिरि को स्त्री का साथ नहीं, स्त्री का सुख चाहिए था। वह चित्रलेखा के ‘यौवन के अथाह सागर’ में डूबने में सफल हो जाता है और चित्रलेखा भी मन से उसका साथ देती है। पर चित्रलेखा के इस हृदय परिवर्तन की जड़ में एक भयानक झूठ था : कुमारगिरि ने उसे यह गलत सूचना दी थी कि बीजगुप्त ने सामंत मृत्युंजय की पुत्री यशोधरा से विवाह कर लिया है। चित्रलेखा अगर सचमुच किसी से प्यार करती थी तो वह बीजगुप्त ही था। पर योगी कुमारगिरि के प्रति उसका आकर्षण भी कम गंभीर नहीं था। हो सकता है, यह आकर्षण जीवन के एक नए स्वाद के प्रति रहा हो, जिसके केंद्र में भोग नहीं, त्याग और नियंत्रण था। पर इसका माध्यम तो कुमारगिरि ही था। योगी कुमारगिरि के यौवन और सुंदरता ने भी चित्रलेखा को आकर्षित किया था - वह अगर अधेड़ या कुरूप होता, तो चित्रलेखा उसकी ओर शायद नहीं खिंचती। फिर भी चित्रलेखा ने योगी कुमारगिरि को लौकिक प्रेमी के रूप में नहीं देखा था। वह तो योग और साधना की सीढ़ियां चढ़ने के लिए उसके पास गई थी।

लेकिन प्रेम आखिर प्रेम ही होता है और पूर्णता में ही उसे शांति मिलती है। इसीलिए जब योगी से उसे यह खबर मिली कि बीजगुप्त अब विवाहित जीवन बिता रहा है, तो उसने अपने आपको बीजगुप्त के प्रति किसी भी नैतिक बंधन से मुक्त मान लिया। उसके बाद कुमारगिरि से उसका पूर्ण मिलन असंभव क्यों रह जाता? जो कुमारगिरि प्रणयी के रूप में चित्रलेखा को किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं था, उसके अधर चित्रलेखा के अधरों को खींचने लगे और आलिंगन पाश में दोनों ओर से दृढ़ता आ गई। कुमारगिरि के आमंत्रण को मुंदी आंखों से टिक करते हुए चित्रलेखा कह उठी- “तो फिर ऐसा ही हो।” यह प्रेम का परिपाक है। ‘पीली छतरीवाली लड़की’ में जिस तरह के मनोविज्ञान का सहारा लिया गया है, उसके आधार पर यह कहने का लालच हो सकता है कि ऐसा करके चित्रलेखा दरअसल बीजगुप्त से प्रतिशोध ले रही थी। लेकिन मैं चित्रलेखा जैसी परिपक्व और बुध्दिमती स्त्री को इतना नीचे गिरते हुए नहीं देखना चाहता। ज्यादा संभावना इस बात की है कि उसने अपने आपको परिस्थिति के हवाले कर दिया हो। कुछ लोगों ने प्रेम के आनंद की उपमा निर्विकल्प समाधि से दी है। लौकिक सत्य यह है कि कई बार जीवन में निर्विकल्प हो जाने के बाद भी प्रेम बाढ़ के पानी की तरह उमड़ पड़ता है।

प्रेम होता भी है?
दार्शनिक-विचारक ज्यां पाल सार्त्र की मान्यता है कि “प्रेम एक असंभव चीज है। हम जिससे प्रेम करते हैं, उसे संपूर्णत: नहीं तो कुछ हद तक खा जाना चाहते हैं। हमारा प्रेमी भी हमें खा जाना चाहता है। जब तक दोनों अस्तित्व मिल कर एक -अखंड- नहीं हो जाते, तब तक चैन नहीं मिलता। लेकिन चूंकि दोनों में से कोई भी वस्तु नहीं है, दोनों जीते-जागते प्राणी हैं, इसलिए प्रेम में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की स्थिति मुलायम लफ्जों में कहा जाए तो कठिन है और साफ-साफ कहा जाए तो असंभव है। इसलिए कोई भी प्रेम संबंध अंतत: विफल हो जाने के लिए अभिशप्त है। यह पत्ता हवा में कांपते हुए ही पेड़ के गर्भ से बाहर आता है। ”

दर्शन के क्षेत्र में यह मान्यता सार्त्र के नाम के साथ जुड़ी हुई है, पर अगर यह सत्य है तो इसका अनुभव प्राय: सभी विचारकों ने किया है। कबीर की यह स्थापना मशहूर है कि प्रेम गली अति सांकरी, तामे दुइ न समाहिं। यहां जगह बहुत कम है। इसमें दो के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। एक का ही राज चलेगा। उसका, जो ज्यादा मजबूत और कम भावनामय होगा। और तीसरा? अधिकांश प्रेमियों का कहना है कि उसका तो सवाल ही नहीं उठता। प्रेमचंद के उपन्यास गोदान में मेहता भी दार्शनिक है। दार्शनिक क्या है, कॉलेज में दर्शन पढ़ाता है। उसकी शेखी देखने लायक है- “प्रेम सीधी-सादी गऊ नहीं, खूंख्वार शेर है, जो अपने शिकार पर किसी की आंख भी नहीं पड़ने देता। ”

मेहता और मालती दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते हैं। एक नाजुक अवसर पर मेहता पूछता है,- “अच्छा, मान लो, मैं तुमसे विवाह करके कल तुमसे बेवफाई करता हूं तो तुम मुझे क्या सजा दोगी?” मालती जवाब देती है कि “मैं उसका कारण खोजूंगी और उसे दूर करूंगी। ” मेहता जानना चाहता है, “मान लो, मेरी आदत न छूटे?” मालती कहती है, “फिर मैं नहीं कह सकती क्या करूंगी। शायद विष खाकर सो रहूं।” यह एक तरह का प्रेम है। लेकिन प्रेम की एक दूसरी किस्म भी है : मेहता अपना पक्ष रखता है, “मैं पहले तुम्हारा प्राणांत कर दूंगा, फिर अपना। ”

दिलचस्प यह है कि प्रेम के बारे में मालती की राय भी इतनी ही इकतरफा है-लेकिन दूसरे कोण से। उसकी परिभाषा में आक्रामकता नहीं, समर्पण है – “मैं प्रेम को संदेह से ऊपर समझती हूं। वह देह की वस्तु नहीं, आत्मा की वस्तु है। संदेह का वहां जरा भी स्थान नहीं और हिंसा तो संदेह का ही परिणाम है। वह संपूर्ण आत्म-समर्पण है। उसके मंदिर में तुम परीक्षक बन कर नहीं, उपासक बन कर ही वरदान पा सकते हो।”

आधुनिक दिमाग कहेगा, यह प्रेम नहीं, श्रध्दा है। जहां श्रध्दा या आदर न हो, वहां प्रेम का पनपना कठिन है। पर जहां सिर्फ श्रध्दा है, वहां प्रेम इकरंगा हो जाता है। प्रेम पूजा नहीं, अनुराग है।

एकल जीवन का मर्म

Posted By Geetashree On 9:33 PM 8 comments
मैं आफिस के काम से दो दिन की यात्रा पर थी, इधर दिल्ली में यह सम्मेलन हो रहा था। वादा करके भी मैं सम्मेलन की रिपोर्ट आप तक नहीं पहुंचा पाई। हमारी पुरानी मित्र अलका आर्य की पैनी नजर रहती है स्त्री विषयक मुद्दों पर। इस सम्मेलन पर भी उनकी नजर थी। उन्होंने दो दिन तक हर पहलू पर नजर रखी और कुछ जरुरी सवाल उठाते हुए उसे लेखनुमा पेश किया है...अलका ने मेरा वादा पूरा कर दिया।

दिल्ली में देश के 15 राज्यों से आईं विधवा, तलाकशुदा, परित्यक्ता, और कुंवारी माएं जुटी और उन्होंने मिल कर राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच के गठन की घोषणा की। सन 2001 की जनगणना के अनुसार देश में 7.4 प्रतिशत महिलाएं एकल हैं। हालांकि इस सीमित दायरे के कारण इनकी वास्तविक संख्या सरकारी रिकार्ड से कहीं ज्यादा होगी। एकल स्त्री की सरकारी परिभाषा में बिन ब्याही औरत का कोई जिक्र नहीं है। जबकि एकल नारी संगठन के अनुसार 35 साल से ज्यादा उम्र की बिनब्याही औरत भी एकल नारी है। एकल महिलाओं के अधिकारो के लिए संघर्ष करने वाले संगठन का मानना है कि एसी महिलाओं की सूची में विधवा, तलाकशुदा, परित्यक्ता, 35 साल से ज्यादा उम्र की कुंवारी महिलाएं, कुंवारी माएं, जिनके पति लापता है, या आजीवन कारावास भोग रहे हैं, या किसी गंभीर शारीरिक, मानसिक बीमारी से जूझ रहे हैं, या एचआईवी, एडस से पीड़ित एकल महिलाएं हैं...। एकल महिलाओं की इस गैरसरकारी परिभाषा के दायरे की तुलना में सरकारी परिभाषा का जो संकुचित दायरा नजर आता है उसमें औरत की पहचान के प्रति रुढिवादी सामाजिक सोच ही हावी है।

दरअसल एकल महिलाओं के अस्तित्व को स्वीकार ना करने के कारण वे आज संसाधनहीन हैं। एसी महिलाओं की मदद के लिए एक दशक पहले 1999 में राजस्थान में एकल नारी संगठन का गठन किया गया और आज देश के झारखंड, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात व बिहार में एकल महिलाओं के लिए संगठन काम कर रहे हैं। फिर भी देश भर की एकल महिलाओं की मदद के मद्देनजर राष्ट्रीय एकल नारी अधिकार मंच के गठन की जरुरत महसूस की गई।
राज्य स्तरीय संगठन अपने अपने राज्यों में एकल महिलाओं के अधिकारो के लिए संघर्ष कर रहे हैं। कहीं कहीं थोड़ी सफलता भी मिली है।
कही-कही थोड़ी सी सफलता मिली है। मसलन हिमाचल प्रदेश राज्य सरकार ने मदर टेरेसा असहाय मातृ सबल योजना के तहत बच्चों की आयु 14 वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी है और सहयोग राशि भी 1000 से बढ़ाकर 2000 रुपये कर दी है, लेकिन यह योजना सिर्फ विधवाओं के लिए है। हिमाचल प्रदेश की एकल नारी शक्ति संगठन को बच्चों की आयुसीमा व सहयोग राशि बढ़वाने में तो सफलता मिली, मगर अब उसकी मांग राज्य की सभी एकल महिलाओं के बच्चों को इस योजना में शामिल करने की है। राजस्थान में सामाजिक सुरक्षा पेंशन की रकम 125 रुपये प्रतिमाह से बढ़ाकर 400 रुपये कर दी गई है। झारखंड में प्रस्तावित महिला नीति में एकल महिलाओं को अलग श्रेणी में दर्शाया गया है, लेकिन इन चंद उपलब्धियों के साथ हमें एकल महिलाओं की मदद के लिए बनी सरकारी योजनाओं की हकीकत को भी नहीं भूलना चाहिए। भारत स रकार की स्वाधार योजना हो या राष्टï्रीय परिवार लाभ योजना ये एकल महिलाओं के बहुत बड़े हिस्से तक नहीं पहुंच पाती। राशन कार्ड प्राय: घर के पुरुष मुखिया के नाम जारी किया जाते है। पत्नी के अलग हो जाने की स्थिति में उसके नाम दूसरा राशन कार्ड नहीं बनाया जाता, जबकि छह साल पहले सर्वोच्च अदालत ने अपने एक खास आदेश में कहा है- विधवाओं एवं एकल नारी, जिसकी सहायता करने वाला कोई नहीं है, को भी इस योजना में शामिल किया जाए।नरेगा भी एकल महिलाओं को रोजगार मुहैया कराने में खास मददगार नहीं सिद्ध हुआ, क्योंकि अक्सर जॉब कार्ड परिवार के पुरुष सदस्य के नाम जारी किया जाता है वह इसमें कार्य पुरुष एवं महिला के जोड़े को ही प्रदान किया जाता है। योजना आयोग की सदस्य डॉक्टर सईदा हमीद के अनुसार देश के सबसे महत्वपूर्ण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के दायरे से एकल महिलाओं को बाहर रखने से भी 11वीं पंचवर्षीय योजना के उन धेाषित उद्देश्यों को नुकसान पहुंचेगा, जिसमें समाज के सभी वर्गों के विकास पर अत्याधिक जोर दिया गया है। उन्होंने सुझाव दिया कि इस योजना में नए दिशा-निर्देश अपनाएं जाएं, ताकि एकल महिलाओं को इस योजना का सही लाभ मिल सके। राष्टï्रीय एकल नारी अधिकार मंच की सरकार से मुख्य मांग एकल महिला को अलग पारिवारिक इकाई का दर्जा, अलग राशन कार्ड, सामाजिक सुरक्षा राशि व जॉब कार्ड देने की है। अब देखना है कि मंच ने अपने मांगपत्र में केंद्र सरकार से 2011 की जनगणना में एकल महिलाओं को विधवा, तलाकशुदा, परित्यक्ता व अविवाहित की श्रेणियों में रखने की जो मांग की है, उस पर सरकार क्या रुख अपनाती है।

एकाकीपन के कुछ साल

Posted By Geetashree On 8:36 PM 9 comments

--करीब चार करोड़ अकेली महिलाएं
--आपबीती बताने दिल्ली पहुंची
--कुरीतियां थोपे जाने का विरोध
--घरेलू हिंसा का चिठ्ठा खोलेंगी

अब अकेली रहने वाली महिलाओं ने अपनी चुप्पी तोड़ने का फैसला किया है और एक मंच पर आ पहुंची हैं, जहां से उठाएंगी अपनी आवाज, जो शायद बहरे कानों को भी भेद सके। एकल महिला काना कोई घर होता है ना कोई रिश्तेदार।जिस घड़ी वह अकेले चलने का फैसला करती है उसे सचुमुच अकेले छोड़ दिया जाता है। इस फैसले के साथ कोई नहीं होता...आप जानते हैं ये कौन हैं एकल जीवन जीने वाली महिलाएं। इनमें शौकिया कम...मजबूरीवश एकल जिंदगी जीने वाली महिलाएं ज्यादा हैं। सबके अपने अपने सामाजिक कारण हैं। कोई विधवा होकर घरवालों द्वारा संपत्ति से बेदखल कर दी गई है, किसी के बच्चे छोड़ गए हैं, किसी का पति त्याग कर चुका है, किसी की शादी नहीं हुई या नहीं की, किसी को डायन या मनहूस बताकर समूचे समाज से काट दिया गया है... , इसी तरह की एकल महिलाएं अपनी चुप्पी तोड़ेंगी। विदेशी मूल की सामाजिक कार्यकर्त्ता डा. गिन्नी श्रीवास्तव और नारी शक्ति संस्थान की अगुआई में राष्ट्रीय मंच बना कर 14 राज्यों से करीब डेढ सौ महिला संगठनों की प्रतिनिधि अपना मांग-पत्र केंद्र को देंगी।

इन महिलाओं से मिले तो पता चलता है कि समाज-प्रशासन उन्हें सामान्य नागरिक तक मानने को तैयार नहीं ना ही उस नाम पर मिलने वाली सुविधाओं का हकदार उन्हें मानते हैं। इनके पास कोई परिवार नहीं, इसलिए अलग से कोई राशन कार्ड नहीं। ये चाहती है कि एकल महिला को भी अलग पारिवारिक इकाई माना जाए तथा उसका राशन कार्ड बनाया जाए। सभी एकल महिलाओं उनके बच्चों को निशुल्क स्वास्थ्यसेवा उपलब्ध कराई जाए, उन्हें पैतृक व ससुराल की भूमि एवं संपत्ति में बराबर का अधिकार मिले। बजट में इनके लिए अलग से प्रावधान हो र 2011 का जनगणना रिपोर्ट में एकल महिलाओं की विभिन्न श्रेणियों--विधवा, तलाकशुदा, परित्यक्ता, अविवाहित आदि को अलग वर्ग के रुप में दरशाया जाए।

अभी तक एसी महिलाए हाशिए पर रहती आई हैं..जाहिर उनका दर्द बहुत बड़ा है। यह सच किसी से छुपा नहीं है कि एक अकेली महिला को समाज किस नजरिए से देखता है। वैसे भी औरत ने चौखट से कदम बाहर निकाला नहीं कि सबसे पहला हमला उसके चरित्र पर किया जाता है। एसे में कोई स्त्री अकेली रहने का फैसला करे या विवशतावश अकेली रह जाए तो सोचिए...किन किन खिताबो से उसे नवाजा जाता है। उसकी पीठ पर संदेह की चिप्पी किसी इश्तेहार की तरह टांक दी जाती है...

यह सम्मेलन कई कोणों से बेहद महत्वपूर्ण है...हम एक आधुनिक-समकालीन समाज में सांस ले रहे हैं..वक्त आ गया है कि एकल महिलाओं के बारे में समाज अपना दृष्टिकोण और रवैया बदले, उन्हें हाशिए से उठा कर मुख्यधारा से जोड़े।

दो दिन तक चलने वाले इस सम्मेलन पर होगी हमारी नजर..और हम रोज इसकी खबर आप तक पहुंचाएंगे...आज से शुरु हो रहा है..चुप्पी का विस्फोट...

वेदांता की मौत की चिमनी

Posted By Geetashree On 3:31 AM 3 comments
छत्तीसगढ़ के बालको में घरों को रौशन करने के लिए बनाई जा रही विशाल चिमनी ने ही सैकड़ों घरों को हमेशा-हमेशा के लिए अंधेरे में डूबा दिया है. इस घटना को दस दिन हो गये हैं लेकिन अब तक 41 मज़दूरों की हत्या की जिम्मेवारी तक तय नहीं हुई है. हालत ये है कि वेदांता की इस चिमनी में कितने मज़दूर काम कर रहे थे, इसका आंकड़ा भी छत्तीसगढ़ सरकार के पास नहीं है.
बालको नगर से आलोक प्रकाश पुतुल की रिपोर्ट
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