देश स्वतंत्र, मगर नारी आज भी परतंत्र

Posted By Geetashree On 4:53 AM 6 comments
प्रसून जोशी

मेरे परिवार में एक लड़की की शादी उसकी मर्जी के खिलाफ की जा रही थी, लेकिन उस लड़की में अपनी इच्छा अपने ही परिवार वालों को बता पाने का साहस नहीं था।

लोकलाज और संकीर्ण सामाजिक मान्यताओं की वजह से वह लड़की अपने ही पिता को यह नहीं कह पा रही थी कि उसे यह शादी नहीं करनी। देश की आजादी के 60 साल बाद भी स्त्री की ऐसी दशा अविश्वसनीय लगती है। मगर यह कड़वा सच है कि इतने सालों बाद भी भारत में महिला वहीं की वहीं है।

स्त्री को मां, देवी, त्याग की मूर्ति और न जाने कितने ही ऐसे दर्जा देकर जरूरत से ज्यादा उठा दिया गया है। दरअसल इन दर्जों के बोझ से स्त्री उठने की बजाय दब गई है। इन खोखले दर्जों के भार तले वह पिस रही है। अपनी आम इच्छाओं का गला दबाकर वह लगातार समाज द्वारा तय किए अपने तथाकथित कर्तव्यों को निभाए चली जा रही है। उसे ऐसी परिभाषाओं में जकड़ दिया गया है, जहां समाज की उस पर पूरी पकड़ हो। मगर वह बेचारी यह समझ ही नहीं पाती कि यह पुरुष प्रधान समाज का षड्यंत्र है।

शादी के बाद अपने पति को नाम से न बुलाना, घर के सदस्यों को खिलाए बगैर खाना न खाना और न जाने कितनी ही ऐसी मान्यताएं हैं, जिन्हें वह सदियों से जस-का-तस निभा रही है। संस्कार के नाम पर व्यक्तित्व को बांध देना कहां का न्याय है? बचपन से ही नारी को इन्हीं संस्कारों की घुटी पिलाई जाती है और वह भूल जाती है कि आखिर वह खुद क्या चाहती है। सदियों से यही होता आ रहा है। मैं इसे नारी की परतंत्रता समझता हूं, जिससे उसे मुक्ति मिलनी ही चाहिए। यह हालत तो हमारे तथाकथित शहरी और सभ्य समाज की है। हालांकि गांवों का तो मैं जिक्र ही नहीं कर रहा हूं। वहां तो स्थिति इससे भी बदतर है।

नौकरीपेशा महिलाओं का जिक्र करें तो नौकरी उनके लिए एक अतिरिक्त जिम्मेदारी है। खाना बनाने से लेकर बच्चों के लालन-पालन, और बाकी घरेलू जिम्मेदारियां के बीच वह नौकरी भी करती है। साथ ही घर और ऑफिस के बीच सामंजस्य बैठाना भी उसके जिम्मे है। विडंबना तो यह है कि खुद औरत ने ही इसे अपनी नियति मान लिया है। उसे कभी नहीं पूछा जाता कि वह क्या चाहती है? वह स्वयं की अपेक्षाओं में ही पिसी जा रही है। अपने आप को खोजने की इस यात्रा में वह नितांत अकेली है। आज भी वह अपने मायने ढूंढ रही है। लोग शायद भ्रमित हैं कि जिस देश में एक महिला राष्ट्रपति हो, वहां यह कैसे हो सकता है। मगर मैं साफ कर दूं कि अपवाद के आधार पर समाज का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।

दरअसल, सदियों से औरत के दिमाग की इस तरह कंडिशनिंग कर दी गई है कि अगर वह अपनी बंधी-बंधाई मर्यादाओं के खिलाफ आवाज उठाए तो खुद उसे अपराधबोध होने लगता है कि ऐसा करके मैं नारी कहलाने लायक नहीं रहूंगी। स्त्री की क्षमता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रकृति ने खुद नारी को सबसे बड़ी कृति की जिम्मेदारी सौंपी है। वह है, एक बच्चे को जन्म देने की जिम्मेदारी।

व्यक्ति अपनी मां के हाथ का स्वाद हमेशा याद करता है। यह एक परंपरा-सी है। मैं ऐसे समाज की कल्पना करता हूं, जहां व्यक्ति अपने पिता के हाथ के खाने को हमेशा याद रखे। यह सिर्फ एक उदाहरण है। मेरा सपना एक ऐसे समाज का है, जहां स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा हासिल हो। स्त्री को अपने हक के बारे में सोचने की और अपने फैसले लेने की स्वतंत्रता हो। हर एक संस्कृति तरल होती है., वह सतत प्रवाहित रहती है। उसमें लगातार बदलाव आता रहता है। कबीर की तरह चदरिया को ज्यों-की-त्यों धर देने की बजाय उसमें बदलाव लाना जरूरी है। नारी की परतंत्रता से जुड़ी है मेरी यह कविता...

बाबुल जिया मोरा घबराए, बिन बोले रहा न जाए।
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे सुनार के घर मत दीजो।
मोहे जेवर कभी न भाए।
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे व्यापारी के घर मत दीजो
मोहे धन दौलत न सुहाए।
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे राजा के घर न दीजो।
मोहे राज करना न आए।
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे लौहार के घर दे दीजो
जो मेरी जंजीरें पिघलाए। बाबुल जिया मोरा घबराए।

शायद कभी हम भी ऐसे समाज का निर्माण कर सकें जब वे सब जंजीरें पिघल जाएं जिन्होंने स्त्री को बांध रखा है।

(यह आलेख 16 अगस्त 2009 के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ है)