नहीं चाहिए घूंघट की आड़

Posted By Geetashree On 9:19 PM 12 comments

ये कहानी ज्यादातर घरों की है। मध्यवर्गीय परिवारों की कहानी..जो शहर तो आ जाता है लेकिन खुद को शहरी चलन के हिसाब से ढाल नहीं पाता। आधुनिकता और पंरपरा के बीच पीसते हुए इस वर्ग की हालत दयनीय हो उठती है तब जब कोई लड़की या बहू अपने परिवार द्वारा थोपे गए रिवाजो के खिलाफ थाने में जा पहुंचती है।

ताजा घटना बताती हूं...दिल्ली से सटे एक उपनगर नोएडा की रहने वाली एक पढी लिखी बहू ने अपने ससुराल वालों की मानसिकता के खिलाफ नारा बुंलद कर दिया है..बेटी के जींस और बहू को घूंघट..नहीं चलेगा नहीं चलेगा...

जब घर वालों ने फरियाद नहीं सुनी तो बहू अपनी शिकायत लेकर थाने जा पहुंची। बहू ने शिकायत दर्ज कराई कि ससुराल वाले उसके साथ दोहरा रवैया अपना रहे है। (वैसे ये कोई नहीं बात नहीं), मानसिक उत्पीड़न कर रहे हैं, उसे किचन में भी घूंघट में रहना पड़ता है। जबकि उस घर की बेटियां जींस भी पहनती हैं। बहू के घर से बाहर निकलने की इजाजत नहीं मिलती। बहू होने के कारण उस पर जानबूझ कर रुढिवादी तौर तरीके थोपे जा रहे हैं। सिर से पल्लू सरक जाए तो ससुराल वाले गुस्सा हो जाते हैं। एक बार घूंघट के लेकर ससुराल वालों से कहा सुनी हो गई, बहू ने ससुराल छोड़ दिया और मायके वालों को साथ लेकर थाने पहुंच गई। पुलिस अधिकारी भी इस अजीबोगरीब शिकायत को लेकर पसोपेश में आ गए..फिर ससुराल पक्ष को थाने में बुलाया गया, दोनों पक्षों में देर तक बहस चली..आखिर में बहू के बेटी की तरह रखने के लिए ससुराल वाले सहमत हुए। पुलिस अधिकारी ने उन्हें दकियानूसी रवैया छोड़ने और नई व्यवस्था को लागू करने के लिए 10 दिन की मोहलत दी है।


ये टकराव रुढिवादी मानसिकता और आधुनिक समाज के बीच है। लड़की ने एमबीए किया है, फ्रेंच भाषा में डिप्लोमाधारक है, पढी लिखी आजाद खयाल की एक लड़की पर घूंघट के लिए दवाब बनाना बेहद हास्यास्पद है। यहीं नहीं...सुसराल वाले उसे पायल समेत तमाम सुहाग चिह्न धारण करने के लिए कहते हैं। साड़ी में लिपटी लड़की उन्हें बहू के रुप में चाहिए। जिस परिवार में बेटियां आधुनिक पोशाक पहने वहां एक पढी लिखी बहू से साड़ी और घूंघट की उम्मीद कितनी अजीब लगती है। ये किस दुनिया, समझ और समय में जीने वाले लोग हैं।


.ये लड़की तो हिम्मतवाली निकली जो सबक सिखाने पर आंमादा हो गई है। ना जाने कितनी बहूएं आज भी वही पोशाक पहन रही हैं जो ससुराल वाले तय करते हैं। आप उनके घरों में जाएं तो बेटी बहू का फर्क साफ साफ नजर आएगा। कलह के डर से कई आधुनिक बहूएं वहीं कर रही हैं जो उन पर थोपा जा रहा है। मैं तो अपने आसपास देखती हूं...मैं भी खुद को इनमें शामिल करती हुए बताती हूं कि जैसे ही किसी के सास-ससूर गांव से दिल्ली आने वाले होते हैं वैसे ही आधुनिक बहूंओं की पोशाके बदल जाती है..खाली हाथों में कांच की चूड़ियां पड़ जाती हैं और मांग में लाल लाल सिंदूर चमकने लगता है। कुछ डर से करती है, कुछ इसे बड़ो का लिहाज बताती हैं तो कुछ का तर्क होता है--अरे कितने दिन रहना है उन्हें.. तक हैं उनके हिसाब से जी लो..जाने के बाद तो मर्जी अपनी। कौन सा वे देखने आ रहे हैं। एक बहू है उनके ससुराल वालों को बहू के जींस पहनने से इतनी नफरत है कि बहू बेचारी जींस पहन कर खींची गई तस्वीरें भी उन्हें नहीं दिखाती। एक और बहू है...जिसके ससुराल वालों के बहू का नाइटी पहनना पसंद नहीं। जिस दिन बहू घर में आई, सासु मां फरमान लेकर पहुंची...तुम चाहे घूंघट मत करो, नाइटी मत पहनना, तुम्हारे ससुर जी को पसंद नहीं, उन्होंने मुझे और अपनी बेटियो तक को नहीं पहनने दिया। कामकाजी बहू ने फरमान सुनते सिर पीट लिया। क्या करती...एक नाइटी के लिए परिवार की शांति भंग नहीं की जा सकती ना। सो..नाइटी को वैसे छुपा दिया जैसे कोई अपना खजाना छुपाता है।


पता नहीं कितनी बातें, कहानियां, कुछ सच हैं जिन्हें जानकर रुढिवादी मानसिकता पर कोफ्त होती है। एसे मामलों में पता नहीं ससुराल वाले कितना बदलते हैं, लड़कियां बदल जाती है। वे बदलने क लिए ही पैदा जो होती हैं...

दिल्ली के आसपास जितने भी गांव हैं, वहां बुरा हाल है। शादी हुई नहीं कि सिर पर पल्लू। आप दिल्ली यूपी के शापिंग माल में एसा नजारा देख सकते हैं। हरियाणा में तो पल्लू अनिवार्य है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी घूंघट प्रथा कम नहीं है। दिल्ली में रहने वाली बिहारी बहूंएं जब अपने गांव जाती हैं तो ससुराल की सीमा शुरु होते ही सिर पर पल्लू डाल लेती हैं। चाहे वे कितनी पढी लिखी हों। ज्यादा पढी लिखी बहू ने घूंघट किया तो घर घर में उसकी प्रशंसा होती है और वो सबके लिए उदाहरण बन जाती है। घूंघट नहीं किया तो लड़कियों की पढाई और उनकी आजादखयाली को जम कर कोसा जाता है।

राजनीति में आने वाली बहूओं ने और बेड़ा गर्क कर रखा है। वोट पाने के लिए विदेशों में पढी लिखी, पेजथ्री पार्टी की शान बढाने वाली बहूंएं अचानक घूंघट अवतार में नजर आने लगती हैं। राजनीति की पाठशाला में आने से पहले उनके सिर पर पल्लू पड़ जाता है। उम्मीद की जाती थी कि नई लड़कियां इस चलन को बदलेंगी मगर कुछ तो बदलने का नाम ही नहीं ले रही। नतीजा...समाज का रवैया आसानी से कभी बदला है जो बदलेगा।

पिछले साल मैं महाराष्ट्र के दौरे पर गई थी। सूदूर, गांवों में, जहां महिलाओं ने सेल्फ हेल्प ग्रुप बना कर काम कर रही हैं। उनकी संस्था में इस समूह से मुलाकात हुई तो देखा सबने साड़ी पहन रखी है और सबके सिर पर पल्लू है। उनमें से कुछ मोपेड भी चलाती हैं। चलाते समय भी नके सिर पर पल्लू रहता है। मैंने पूछा तो पता चला कि ससुराल वाले कहते हैं कामकाज करना हो तो करो, चार पैसे आ जाए, किसे बुरा लगता है मगर परंपरा का पालन करते रहें। मैंने कंचन नामक युवा महिला को पल्लू के खिलाफ भड़काया, उसने कहा- क्या बताएं, हमें साड़ी पहन कर मोपेड चलाने में दिक्कत होती है, उस पर से ये पल्लू। हमारे गांव में परदा प्रथा इतनी है कि औरतों के लिए अलग से एसटीडी बूथ बने हुए हैं। एसे में हम पल्लू हटाने के बारे में कैसे सोच सकते हैं।


औरतें आत्मनिर्भर होने के बावजूद मुक्त नहीं हैं अपने रिवाजो से, ढकोसले से..सामाजिक दबावो से...पोशाकों से..जिस जमाने में ये प्रथाएं औरतो पर थोपी गई होंगी तब समय कुछ और रहा होगा..दौर बदल गया है, दुनिया कहां से कहां चली गई...हम हैं कि उसी मानसिकता में जी रहे हैं। आज के समय में इस प्रथा को पोसने वालो से मेरा आग्रह है कि चाहरदीवारी की कैद में, खुद को पांच मीटर के कपड़े में लपेट कर चूल्हा फूंके, घूंघट की आड़ में रह कर...पता चल जाएगा कि एक लड़की कैसे झेलती है ये सब।