आउटलुक (हिंदी-अंग्रेजी) का सेक्स सर्वे

Posted By Geetashree On 11:18 PM 14 comments

आधुनिकता को तेजी के साथ आगोश में लेते दिल्ली से सटे गुडग़ांव शहर में 32 साल के युवा ईशान अवस्थी का मानना है, 'पश्चिमी लिबास और मूल्यों वाली महिलाओं की ओर मैं ज्यादा तेजी के साथ आकर्षित होता हूं, बजाय परंपरागत भारतीय महिला के। वहीं पटना के पुनाईचक में रहने वाले और पेशे से कंप्यूटर इंजीनियर रवि प्रकाश संबंधों को लेकर लिबास और फितरत में पाश्चात्य महिला के पक्षधर हैं पर मूल्यों के प्रति उनकी आस्था परंपरागत भारतीयता में ही है। हालांकि गुडग़ांव के 22 और पटना के 20 फीसदी युवा पुरुष ईशान की सोच के साथ खड़े है लेकिन आज भी पटना के 11, गुडग़ांव के 16 और लखनऊ के 10 फीसदी युवा परंपरागत मूल्यों की स्वामिनी और साड़ी पहने या सलवार-कमीज के साथ दुपट्टा डाले महिला से किसी भी हद तक दोस्ती करने को उत्सुक हैं। एक बात साफ है, बदलाव हर कहीं दस्तक दे रहा है। कहीं हौले से तो कहीं तेजी के साथ।दरअसल ईशान और रवि युवाओं के उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं जो बदलते परिवेश में कहीं खुद को साथ पाता है और कहीं बदलाव से असंपृक्त रहकर परंपरा के साथ खड़ा दिखता हैं।

आउटलुक और मार्केटिंग एंड डेवलपमेंट रिसर्च एसोसिएट्स (एमडीआरए) ने इस बार राष्ट्रव्यापी यौन सर्वेक्षण में भारत के उन दस शहरों को लक्ष्य बनाया जिनका शुमार महानगरों में नहीं होता। बावजूद वहां बदलाव की बयार साफ नजर आ रही है। इन शहरों में कहीं वर्जनाओं के हक में और परंपराओं के साथ तो कहीं बदलती जिंदगी के नए मायने हासिल करने की खातिर पुरुषों के विरोध का स्वर सुनाई दे रहा है। परिवर्तन की इस प्रक्रिया से गुजरते समाज में यौन संबंधों को लेकर कहीं जुंबिश है तो कहीं हड़कंप। कहीं स्वागत का भाव है तो कहीं दुहाई की पुकार। एक बात तो साफ है कि बदलाव हो रहा है। यह वे युवा हैं जो यौन संबंधों की बंद किताब पर अब सार्वजनिक बहस को तैयार हैं। आपसी बातचीत में विपरीत सेक्स को प्रभावित करने के तरीकों पर विचार करते हैं। गुडग़ांव के 28 फीसदी युवाओं का मानना है कि महिलाएं एक सुगठित देह वाले पुरुष पर फिदा हो जाती है। जबकि लखनऊ 24 फीसदी युवाओं की दलील है कि आधुनिक पोशाक कहीं ज्यादा अहमियत रखते हैं। सर्वे से साफ हुआ कि खुद को व्यक्त करने में साफगोई पिछले एक-दो दशकों के मुकाबले अब कहीं तेज ध्वनित हो रही है। लखनऊ के 27 फीसदी और पटना के 13 फीसदी युवा ऐसे मिले जो अब तक के जीवन में यौन संतुष्टि के लिए तीन से पांच बार तक वेश्याओं से यौन संपर्क साध चुके थे। पटना के 31 फीसदी, लखनऊ के 18 फीसदी, चंडीगढ़ के 22 फीसदी और गुडग़ांव के 23 फीसदी पुरुषों का मानना है कि यौन संतुष्टि के लिए ओरल-सेक्स बेहद जरूरी है। जबकि इन सभी शहरों में गैरजरूरी मानने वाले पुरुषों की संख्या 15 से 21 फीसदी के दरम्यान मिली। परिवर्तन की इस गति में सही मन:स्थिति की दुरुस्त तस्वीर हासिल करने के लिए आउटलुक-एमडीआरए यौन सर्वेक्षण के तहत 24 से 34 साल के पुरुषों से महिलाओं के प्रति, खासतौर पर महिलाओं के साथ यौन संबंधों की बाबत, ढेरों सवाल पूछे गए। ऐसे में एक सवाल मौजूं है कि आखिर इस यौन सर्वेक्षण का मकसद क्या है। जवाब है, इस आयु वर्ग की यौन संबंधी बदलती सोच करवट लेते भारत के लिए खास मायने रखती है। जाहिर है, यही तबका आने वाले भारत की संतति और गढ़ते समाज के सामाजिक मूल्यों को नए सिरे से परिभाषित करने जा रहा है। खास बात तो यह है कि इस सर्वेक्षण में उन युवाओं की बदलती मानसिकता को समझने की कोशिश की गई है जो समाज की चकाचौंध के हिस्से नहीं हैं। जो मेहनती सफेदपोश हैं और जिनकी तस्वीरें सड़कों के किनारे खड़े दानवाकार होर्डिंग्स में नहीं झलकती। जो गलियों में चाय की दुकान चलाते हैं, ट्यूशन पढ़ा कर परिवार चलाते हैं। यूं कहें कि रोजमर्रा की जिंदगी की छोटी-छोटी ख्वाहिशों को हासिल करने के लिए जी भर मशक्कत करते हैं। थक कर सो जाते हैं। इसके बावजूद सपने देखते हैं, दबाते-सकुचाते समाज की बाबत बेहतरीन समझ रखते हैं। सर्वेक्षण में शामिल युवा यह भी बताते हैं कि परंपरागत समाज के मूल्यों की चहारदीवारी में कहां और किस हद तक दरकन पैदा हो चुकी है। मूल्यों में इन परिवर्तनों की स्वीकृति के मानक क्या हैं? कोई विवाद नहीं कि सर्वेक्षण में शामिल आयु वर्ग के युवा पुरुष बदलते भारत में शहरीकरण के विस्फोट के बीच परिपक्व हुए हैं। उन्होंने परंपरागत सामाजिक मूल्यों को ढहते और रिश्तों की परिभाषा को नया अर्थ पाते हुए देखा और महसूस किया है। इनके पास निजस्वता है। जानकारी के लिए, सर्वेक्षण देश के दस शहरों में हुआ पर हम आंकड़े और नतीजे उन चार मुख्य शहरों के दे रहे हैं जो हिंदी मानस के राज्यों में स्थित हैं। इनमें परिवर्तन और जकडऩ की कसक कहीं ज्यादा तीखी है। कहावत है कि सिर्फ शहर ही नहीं बदलते, इंसान भी बदलते हैं। यह बात झलकती है इंसानी रिश्तों में। सर्वेक्षण नतीजे बताते हैं कि बदलाव की यह बयार अब सिर्फ महानगरों तक ही सीमित नहीं रही, जमीनी स्तर पर भी रिश्तों के प्रति सोच में परिवर्तन साफ नजर आ रहा है। खासतौर पर पुरुष और स्त्री के रिश्तों में, यौन संबंधों में। एक परंपरावादी समाज में बदलाव की इस बयार का रुख साफ होने जा रहा है आउटलुक-एमडीआरए यौन सर्वेक्षण में।

यौन सर्वेक्षण कैसे, कहां और किनके बीच

आउटलुक पत्रिका ने प्रमुख शोध संगठन एमडीआरए के साथ मिलकर गुडग़ांव, चंडीगढ़, लखनऊ, अहमदाबाद, पटना, नागपुर, गुवाहाटी, हैदराबाद, बेंगलुरू और कोच्चि शहर के 24 से 34 साल की उम्र वाले आधुनिक और शिक्षित शहरी पुरुषों के बीच यौन सर्वेक्षण किया। मुकम्मल नतीजे पाने के लिए एस-3 नियम का कड़ाई से पालन किया। एस-3 यानि नमूने का आकार , फैलाव और चयन । नतीजों में आग्रह न दिखे, इसके लिए लक्षित वर्ग के बीच से औचक तौर पर नमूने उठाए गए। लक्षित वर्ग के पुरुषों से सवाल पूछने के लिए टीम के सदस्यों को खासतौर पर प्रशिक्षित किया गया और सवालों के जवाब आमने-सामने की बातचीत से जुटाए गए। सर्वे अभियान 14 से 23 नवंबर 2009 के बीच इन शहरों में चला। नतीजतन हमें गैरमहानगरीय शहरों के पुरुषों की सोच की व्यापक तस्वीर हासिल हो सकी। सर्वे में 24 से 27 वर्ष के शामिल शहरी पुरुषों का प्रतिशत 31.2, 28 से 30 उम्र के 30.6 और 31 से 34 आयु वर्ग के 38.2 है। इनमें संयुक्त परिवार के 65.5 और एकल परिवार के 34.5 फीसदी पुरुष थे। सर्वे की व्यापकता को विस्तृत करने के लिए इन पुरुषों में से 64.2 फीसदी शहरी युवा ऐसे थे जिनकी कोई संतान नहीं थी वहीं 33 फीसदी पुरुष एक से दो बच्चों के पिता थे। जबकि दो संतानों से अधिक वाले पुरुषों का प्रतिनिधित्व 2.8 फीसदी रहा। वहीं, पत्नी के साथ रह रहे शादीशुदा पुरुषों का प्रतिनिधित्व इस सर्वे में 48.9, शादीशुदा पर एकाकी रह रहे शहरी पुरुष 3.8 फीसदी अविवाहित पर एक महिला दोस्त के प्रति समर्पित 17.7 फीसदी शहरी पुरुष और अविवाहित एवं बिना महिला दोस्त के पुरुषों का प्रतिनिधित्व 29.6 है। बावजूद सभी सावधानियों के सर्वे के नतीजों में +2.97 फीसदी की त्रुटि संभव है।
(साभार)

गोवा की संस्कृति खतरे में

Posted By Geetashree On 7:05 AM 1 comments

गोवा ही करता रहेगा मेजबानी

अभिनेत्री नंदिता दास ने उबाल खाकर बयान दिया कि एक ना एक दिन अपना फिल्म समारोह विश्वस्तर का जरुर हो जाएगा। काफी हद तक सचाई बयान कर गईं। जिस तरह से फिल्म समारोह निदेशालय और गोवा इंटरटेनमेंट सोसाइटी के बीच तालमेल हुआ वो एक अच्छे भविष्य की उम्मीद जताता है। पिछले साल तक दोनों के बीच टसल चलता रहा और श्रेय लेने की जो एक दूसरे से होड़ चलती रही उससे समारोह की गुणवत्ता पर फर्क पड़ता नजर आया था। इस बार लगता है दोनों में बेहतर समझदारी पैदा हुई है. गोवा में फिल्म प्रेमियों के लिए तमाम मुश्किलों के बाबजूद समारोह यहां बना रहेगा। फिलहाल केंदेर सरकार गोवा को ही स्थाई वेन्यु मान रही है. जब समारोह को गोवा लाने का फैसला किया गया था तब केंद्र और राज्य दोनों में भाजपा की सरकार थी। निदेशालय को इस बात का अहसास है कि गोवा की वजह से नेशनल मीडिया दूर हो गया है। इस शहर में विश्व स्तरीय सुविधाओं की कमी है, खर्चीला है। निदेशालय के एक सूत्र ने बताया कि फिलहाल गोवा पर कोई पुर्नविचार संभव नहीं है.जगह बदलना जरुरी होते हुए भी कोई सरकार एक अलोकप्रिय फैसला नहीं लेना चाहती। हालांकि कैबिनेट जब चाहे जगह बदलने का फैसला ले सकती है। लेकिन अब बात सरकार के हाथ से निकल चुकी है क्योंकि कई साल हो गए और दुनिया भर में कांस की तरह गोवा की छवि भी बनती जा रही है।
लेकिन गोवन नाराज हैं। उन्हें अपनी संस्कृति खतरे में पड़ी नजर आ रही है। वे मानते हैं कि लोकल लोगो की जानबूझ कर उपेक्षा की जा रही है क्योंकि ये दिल्ली-तमाशा है। जेरी फर्नांडिस ने तो लोकल अखबार में पत्र लिख कर गोवन लोगो की तरफ से गुस्सा जता दिया है। हालांकि इस साल लोकल लोगो ने जमकर फिल्में देखीं। हर बार उन्हें पास बनवाने में दिक्कत होती थी। इस बार सहूलियत थी। समारोह के बीच भी पास बनावने की सुविधा थी। टेनशन लेने का नहीं देने का...नारा देने वाले गोवन लोग इस बार इफ्फी को लेकर टेनशन में दिखें।
पंजिम के रहने वाले जेरी फर्नांडिज का गुस्सा फूटा कि गोवन लोग संगीत प्रेमी हैं फिल्म प्रेमी नहीं। उन्हें दुनिया भर के संगीत की समझ है, फिल्म की नहीं। उन पर फिल्म सामरोह क्यों थोपा जा रहा है। उन्हें लगता है कि समारोह में सिर्फ आर्ट फिल्में ही आती हैं।
जेरी पूछते हैं-फिल्म समारोह से गोवा को क्या लाभ। इससे हमारी संस्कृति खतरें में पड़ जाएगी। अगर से ही आयोजित होता रहा तो हम लोकल लोग अपना सपोर्ट बंद कर देंगे। उनका गुस्सा इस बात पर भी है कि गोवा के मशहूर गायको, रेमो, हेमा सरदेसाई, आलीवर सीन को ना उदघाटन में ना समापन समारोह में बुलाया जाता है। उनकी जानबूझ कर उपेक्षा की जाती है। गोवा के लोगो का ताजा गुस्सा इस बात पर भी है कि कोंकणी फिल्मकार को रेड कारपेट वेलकम का आफर देर से मिला जब उनकी फिल्म को देश से बाहर सम्मान मिला। फिल्मकार ने वेलकम लेने ले इनकार कर दिया। अखबारो में यह खबर प्रमुखता से छपी।
गोवा को खतरा अपनों से नहीं, ड्रग माफिया से होना चाहिए...टूरिज्म से होना चाहिए जो अपने साथ ढेर सारी बुराईया लेकर इलाके में अड्डे जमा चुकी है। जिन्हें सरकार का संरक्षण प्राप्त है। इस पर बात फिर कभी...फिलहाल समारोह समाप्त...लहरें उसी गति से उठ गिर रही हैं...