देसी लड़कियां चाहिए

Posted By Geetashree On 2:59 AM 4 comments

हिंदी सिनेमा के नायक और दर्शकों को नहीं भातीं लडक़ों जैसी लड़कियां

गीताश्री
इंटरनेट की दुनिया में सवालो की एक वेबसाइट है। उसमें अजीबो गरीब सवाल पूछे जाते हैं और जवाब उतने ही दिलचस्प। कई बार सोचने पर मजबूर कर दे। एक सवाल है, कौन सी हिंदी फिल्म भारतीय स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है?
कई जवाब हैं। कई लोगो ने मदर इंडिया, सुजाता, बंदिनी की नायिका को भारतीय स्त्री की सच्ची छवि से जोड़ कर देखा। ऐसा मानने वालो में महिलाएं ज्यादा थीं। समीर नामक युवक का जवाब था, राजश्री बैनर की फिल्म विवाह, जो भारतीय नारी की सच्ची छवि पेश करती है। विवाह जिन्होंने देखी है वे समझ सकते हैं कि उसकी नायिका अमृता राव ने कैसा किरदार निभाया है। सीधी सादी, लंबे बालों वाली शर्मीली, खांटी घरेलू भारतीय लडक़ी जो अपनी जिंदगी का फैसला तक खुद नहीं ले सकती। समाज हो या जीवन, दोनो ही जगह ऐसी छवि वाली लड़कियों के प्रति खासा मोह दिखाई देता है। समीर की सोच समाज के उस पारंपरिक सोच का प्रतिधिनित्व करती है जिसमें लडक़े टाइप लडक़ी के लिए कोई जगह नहीं होती। हिंदी सिनेमा में शुरुआती दौर से लेकर हालिया रिलीज फिल्म एक्शन तक यह रवैया दिखाई देगा।
हाल ही में आई फिल्म एक्शन रीप्ले में अपनी टॉम ब्वॉय जैसी मां (ऐश्वर्या राय बच्चन) और दब्बू पिता (अक्षय कुमार) की लव-स्टोरी का भविष्य बदलने के लिए इनका बेटा (आदित्य) टाइम मशीन की मदद से 35 साल पीछे जाकर अपनी मां के ‘स्त्री रुप’ को जगाने और अपने पिता को ‘असली मर्द’ बनने में मदद करता है। यही सच है। नायक को अगर हमारे दर्शक मर्द, बने हुए देखना चाहते हैं तो नायिका को स्त्री। उन्हें नायिका के चेहरे में टॉम ब्वॉय की नहीं बल्कि देसी गर्ल की तलाश रहती है। सिनेमा के रवैये के अनुसार तो पुरुष लहरो पर उठती हुई देवी वीनस ( कुछ कुछ होता है की रानी मुखर्जी) को देखना चाहता है, फुटबॉल पर किक मारती हुई (केकेएचएच की काजोल) लडक़ा टाइप लडक़ी को नहीं। 1998 में आई करण जौहर की पहली फिल्म कुछ कुछ होता है की लडक़ों की तरह रहने वाली नायिका (काजोल) जब अपने सब से अच्छे दोस्त (शाहरुख खान) को किसी और लडक़ी की ओर झुकते हुए देखती है तो लड़कियों की तरह सज-संवर कर नायक के सामने आती है। नायक उसका मजाक उड़ाते हुए कहता है कि वह तो लडक़ी ही नहीं है। अभिनेत्री और निर्देशक पूजा भट्ट इस मुद्दे पर बेहद तल्ख हैं। वह दो टूक कहती है, यह मर्दो की इंडस्ट्री है। वे ही फैसला करते हैं कि नायिका कैसी होगी। मैं स्त्री को एक आब्जेक्ट के रुप में पेश करने के सख्त खिलाफ हूं।
दरअसल हमारी फिल्मों के नायक हमेशा से ही ऐसी नायिकाओं की ओर आकर्षित होते आए हैं जिनमें ‘लडक़पन’ नहीं बल्कि ‘लड़कीपन’ हो। असल में नायिका को स्त्री की रुढ़ छवि में देखने की यह चाहत पुरुष दर्शकों की उस ख्वाहिश से भी जुड़ी हुई है जिसमें दर्शक किसी स्त्री को पुरुष की तरह से बर्ताव करते हुए नहीं देखना चाहते। यहां सीमोन की एक पंक्ति सटीक बैठती है-पुरुष स्त्री की देह रुप को पसंद करता है, वह उसमें फलों और फूलों का सौंदर्य देखना चाहता है.. ।
यहां यह गौरतलब है कि आजादी से पहले अपने सिनेमा में नाडिया नाम की नायिका को पुरुषों की तरह से देखना हमारे दर्शकों को भाता था। उनके स्टंट दृश्यों के चलते उन्हें ‘हंटरवाली’ तक कहा जाता था। लेकिन आजादी के बाद पर्दे की नायिका को स्त्री की रुढि छवि में ही देखना ज्यादा पसंद किया गया। यहां तक कि अभिनेत्री बिंदु हंटरवाली 77 नाम की एक फिल्म की तो उस फिल्म को दर्शक मिलने मुश्किल हो गए।जिन फिल्मों में नायिका लडक़ों की तरह की पोशाकों, उनकी तरह की हरकतों या उन जैसे मैनरिज्म में नजर आईं उन में नायक को वह तभी भाईं जब उन्होंने अपने इस ‘टॉम ब्वॉय’ वाले रूप को त्याग कर औरत बनना स्वीकार किया। पुरानी चर्चित फिल्म जिद्दी की जुबिली गर्ल यानी टॉम ब्वाय आशा पारेख याद हैं ना। जब तक वह लडक़ों की तरह दिखीं, नायक उनसे दूर रहा, छेड़छाड़ करता रहा, नोकझोंक होती रही, और जैसे ही साड़ी में लिपटी कि नायक का दिल जीत लिया। टॉम ब्वाय टाइप लड़कियों की छवि मौज मस्ती करने वाली लडक़ी के रुप में होती है। जैसे हालिया रिलीज फिल्म गोलमाल 3 में करीना कपूर को देखिए।
मजेदार कोटेशन वाली टी-शर्ट पहने, फेसबुक नामक अपने कुत्ते के पीछे भागने और चंद दोस्तों के साथ धींगामुश्ती करने के अलावा उन्हें काम ही क्या था। प्रेम की स्वीकारोक्ति तक का तो वक्त निर्देशक ने नहीं दिया और नायको के बूढे मां बाप की प्रेम कहानी में ही पूरी फिल्म निपटा दी।
राजकपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर की एक नायिका (पद्मिनी) भी लडक़ों की तरह रहती है। नायक को तबतक उसमें कोई दिलचस्पी नहीं होती। एक दिन नायक उसे नहाते हुए देख लेता है और प्यार करने लगता है। सायरा बानो तो कई फि ल्मों में इस तरह के किरदारों में आईं। आखिरी दोस्त और नहले पे दहला जैसी उनकी फिल्मों में उनके रूप ऐसे ही थे।हेमा मालिनी ने सीता और गीता, दो ठग, राजा जानी में ऐसे रूप धरे। शिकार में आशा पारिख ऐसे रूप में थीं। रेखा ने एक बेचारा और जीनत अमान ने चोरी मेरा काम में। कैद में लीना चंद्रावरकर ने विनोद खन्ना को लुभाया। दिल्ली का ठग में नूतन का किरदार भी कुछ-कुछ ऐसा ही था।पिछले कुछ बरसों में देखें तो 2000 में आई जोश में नायिका ऐश्वर्या राय अपने मवाली भाई शाहरुख खान की तरह बिंदास रहती है लेकिन नायक चंद्रचूड़ सिंह की मोहब्बत उसे यह रूप त्याग कर वापस ‘लडक़ी’ बनने के लिए प्रेरित करती है। 2001 में आई कभी खुशी कभी गम में करीना कपूर नायक हृतिक रोशन को लुभाने के लिए अपनी टॉम ब्वॉय लुक को तो छोड़ती ही है, उसके लिए बिना सगाई-शादी किए करवा चौथ का व्रत भी रखती है। 2003 में आई इश्क-विश्क में नायक शाहिद कपूर ‘बहनजी’ टाइप की अमृता राव को छोड़ बोल्ड और बिंदास शहनाज ट्रेजरीवाला की ओर भागता है लेकिन बाद में उसे वही स्त्री रूप वाली नायिका ही भाती है। 2004 में आई मैं हूं ना में एकदम टॉम ब्वॉय लुक वाली नायिका अमृता राव को शाहरुख खान, सुष्मिता सेन की मदद से ‘लडक़ीनुमा’ बनाते हैं ताकि जाएद खान उसे देखे और बस देखता ही रह जाए। 2009 में आई आशुतोष गोवारीकर की व्हाट इज योर राशि की बारह नायिकाओं में से जो टॉम ब्वॉय इमेज वाली नायिका होती है बाद में वही अपना रूप बदल कर नायक की पसंद बनती है। अगर नायिका अपनी मर्जी से ना बने तो लाडला फिल्म के नायक अनिल कपूर की तरह पूरी जान लगा देता है और किसी तरह नायिका (श्रीदेवी) को औरत होने का अहसास करा कर ही दम लेता है।
सिनेमा की चाल कभी भी स्त्रीमार्गी नहीं रही, अलबत्ता प्रेममार्गी जरुर रही, जिसकी वजह से स्त्री काम्या की तरह बरती गई। सजना है मुझे सजना के लिए..जैसी छवि नायिकाओं की बना दी गई। युवा फिल्म निर्देशक प्रवेश भारद्वाज इस बारे में खिन्नता प्रकट करते हुए कहते हैं कि अधिकतर फिल्मों में नायिकाएं होती ही इसलिए थी कि नायक उससे रोमांस कर सके। हीरोइन का काम हीरो को रिझाना था, जिसने उसे कभी पारंपरिक छवि से मुक्त नहीं होने दिया।